इक बार तो दिखा दो आक़ा मुझे मदीना बेशक बना लो आक़ा मेहमान दो घड़ी का
मेरे आक़ा मदीने में मुझे भी अब बुला लीजे तरसती हैं मेरी आँखें मुझे रौज़ा दिखा दीजें
मेरे आक़ा मदीने में मुझे भी अब बुला लीजे...
महकती हैं वो राहें जिन से आक़ा आप हैं गुज़रे मुझे भी उन गली कूचों में रहने की जगह दीजे
मेरे आक़ा मदीने में मुझे भी अब बुला लीजे...
लड़ी साँसों की ये आक़ा न जाने कब बिखर जाए बुला लीजे मदीने और क़दमों में बसा दीजे
मेरे आक़ा मदीने में मुझे भी अब बुला लीजे...
दुखों ने घेर रखा है ग़मों की धुप है सर पर ठिकाना गुम्बद ए-ख़ज़रा के साए में 'अता कीजे
मेरे आक़ा मदीने में मुझे भी अब बुला लीजे...
मवाजा सामने हो जिस घड़ी ये दम निकल जाए बक़ी 'ए पाक ही आक़ा मेरा मदफ़न बना दीजे
मेरे आक़ा मदीने में मुझे भी अब बुला लीजे...
अक़िदत से बिना ना'लैन जिस दर सय्यिदा आईं मुझे भी सय्यिदु-शशोहदा की वो चौखट दिखा दीजे
मेरे आक़ा मदीने में मुझे भी अब बुला लीजे...
कभी मैं जालियाँ थामूँ बसा कर पंज-तन दिल में अली-ओ-फ़ातिमा हसनैन का सदक़ा अता कीजे
मेरे आक़ा मदीने में मुझे भी अब बुला लीजे...
सितारों कहकशाँ ओं से मदीने की ग़ुबार अच्छी मुयस्सर हो अगर कातिब तो आखों से लगा लीजे
मेरे आक़ा मदीने में मुझे भी अब बुला लीजे..
शायर:- यूसुफ़ हुसैन कातिब
ना'त-ख़्वाँ:- हाफ़िज़ अहमद रज़ा क़ादरी