बिला उज़्रे शरई नमाज़ क़ज़ा कर देना बहुत सख्त गुनाह है उस पर फ़र्ज़ है कि उस की क़ज़ा पढ़े और सच्चे दिल से तौबा करे, तौबा या हज्जे मक़बूल से गुनाहे ताख़ीर माफ़ हो जायेगा। तौबा जब ही सहीह है कि क़ज़ा पढ़ ले। उस को अदा ना करे, तौबा किये जाये, ये तौबा नहीं कि वो नमाज़ जो इस के ज़िम्मे थी उस का ना पढ़ना तो अभी बाक़ी है और जब गुनाह से बाज़ न आया तो तौबा कहाँ हुयी। हदीस में फ़रमाया : गुनाह पर क़ाइम रह कर अस्तग़फ़ार करने वाला उस के मिस्ल है जो अपने रब (अज़्ज़वजल) से ठठ्ठा (मज़ाक़) करता है।
दुश्मन का खौफ़ नमाज़ क़ज़ा कर देने के लिये उज़्र है, मस्लन मुसाफ़िर को चोर और डाकुओं का सही अंदेशा है तो उस की वजह से वक़्ती नमाज़ क़ज़ा कर सकता है बशर्ते ये कि किसी तरह नमाज़ पढ़ने पर क़ादिर ना हो और अगर सवार है और सवारी पर पढ़ सकता है अगर्चे चलने की ही हालत में या बैठ कर पढ़ सकता है तो उज़्र ना हुआ। यूँ ही अगर किब्ला को मुँह करता है तो दुश्मन का सामना होता है तो जिस रुख बन पड़े, पढ़ ले हो जायेगी वरना नमाज़ क़ज़ा करने का गुनाह हुआ।
जनाई (बच्चा जनने वाली, दाई) नमाज़ पढ़ेगी तो बच्चे के मार जाने का अंदेशा है, नमाज़ क़ज़ा करने के लिये ये उज़्र है। बच्चे का सर बाहर आ गया और निफ़ास से पेश्तर वक़्त खत्म हो जायेगा तो इस हालत में भी उस की माँ पर नमाज़ पढ़ना फ़र्ज़ है ना पढ़ेगी तो गुनाहगार होगी, किसी बर्तन में बच्चे का सर रख कर जिस से उस को सदमा ना पहुँचे नमाज़ पढ़े मगर इस तरकीब से पढ़ने में भी बच्चे के मर जाने का अंदेशा हो तो ताखीर मुआफ़ है बादे निफ़ास इस नमाज़ की क़ज़ा पढ़े।
जिस चीज़ का बंदों पर हुक्म है उसे वक़्त में बजा लाने को अदा कहते हैं और वक़्त के बाद अमल में लाना क़ज़ा है और उस हुक्म को बजा लाने में कोई ख़राबी पैदा हो जाये तो दोबारा वो ख़राबी दफ़ा करने के लिये करना इआदा है।
वक़्त में अगर तहरीमा बांध लिया तो नमाज़ क़ज़ा ना हुई बल्कि अदा है यानी बांधते वक़्त, वक़्त था और फिर दूसरा वक़्त दाखिल हो गया तो भी ये नमाज़ हो जायेगी मगर नमाज़े फ़ज्र व जुम्आ व ईदैन (इन का मसअला अलग है) कि इन में सलाम से पहले भी अगर वक़्त निकल गया जाती रहेगी।
सोते में या भूले से नमाज़ क़जा़ हो गई तो उस की क़जा़ पढ़नी फ़र्ज़ है, अलबत्ता क़जा़ का गुनाह उस पर नहीं मगर बेदार होने और याद आने पर अगर वक़्ते मकरूह ना हो तो उसी वक़्त पढ़ ले, ताखी़र मकरूह है, कि हदीस में इरशाद फ़रमाया : "जो नमाज़ से भूल जाये या सो जाये तो याद आने पर पढ़ ले कि वही उस का वक़्त है।" मगर वक़्त दाखिल होने के बाद सो गया फ़िर वक़्त निकल गया तो क़त्अन गुनाहगार हुआ जब कि जागने पर सहीह ऐतिमाद या जगाने वाला मौजूद ना हो बल्कि फज्र में दुखूले वक़्त से पहले भी सोने की इजाज़त नहीं हो सकती जब कि अक्सर हिस्सा रात का जागने में गुज़रा और ज़न है कि अब सो गया तो वक़्त में आँख ना खुलेगी।
कोई सो रहा है या नमाज़ पढ़ना भूल गया तो जिसे मालूम हो उस पर वाजिब है कि सोते को जगा दे और भूले हुये को याद दिला दे। जब ये अंदेशा हो कि सुबह की नमाज़ जाती रहेगी तो बिला ज़रूरते शरिय्यह उसे रात में देर तक जागना ममनू'अ है।
फ़र्ज़ की क़ज़ा फ़र्ज़ है और वाजिब की क़ज़ा वाजिब और सुन्नत की क़ज़ा सुन्नत यानी वो सुन्नतें जिन की क़ज़ा है मस्लन फ़ज्र की सुन्नतें जब कि फ़र्ज़ भी फौत हो गया हो और ज़ुहर की पहली सुन्नतें जब कि ज़ुहर का वक़्त बाक़ी हो।
क़ज़ा के लिये वक़्त मुअय्यन नहीं, उम्र में जब पढ़ेगा बरीउज़्ज़िमा हो जायेगा मगर तुलूअ व ग़ुरूब और ज़वाल के वक़्त कि इन वक़्तों में नमाज़ जाइज़ नहीं।
मजनून की हालते जुनून जो नमाज़ें फौत हुयीं अच्छे होने के बाद उन की क़ज़ा वाजिब नहीं जब कि नमाज़ के छ: वक़्ते कामिल तक बराबर रहा हो।
जो शख्स मआज़ अल्लाह मुर्तद हो गया फिर इस्लाम लाया तो ज़माना -ए- इरतिदाद की नमाज़ों की क़ज़ा नहीं और मुर्तद होने से पहले ज़माना -ए- इस्लाम में जो नमाज़ें जाती रहीं थी उन की क़ज़ा वाजिब है।
दारुल हरब में कोई शख्स मुसलमान हुआ और अहकामे शरईय्या, नमाज़, रोज़ा, ज़कात वग़ैरह की इस को इत्तिला ना हुयी तो जब तक वहाँ रहा इन दोनों की क़ज़ा इस पर वाजिब नहीं और जब दारुल इस्लाम में आ गया तो अब जो नमाज़ क़ज़ा हो गयी उसे पढ़ना फर्ज़ है कि दारुल इस्लाम में अहकाम का ना जानना उज़्र नहीं और किसी एक शख्स ने भी इसे नमाज़ फर्ज़ होने की इत्तिला दे दी अगर्चे फ़ासिक़ या बच्चा या औरत या ग़ुलाम ने तो अब जितनी ना पढ़ेगा उन की क़ज़ा वाजिब है, दारुल इस्लाम में मुसलमान हुआ तो जो नमाज़ फौत हुयी उस की क़ज़ा वाजिब है अगर्चे कहे कि मुझे इसका इल्म ना था।
ऐसा मरीज़ के इशारे से भी नमाज़ नहीं पढ़ सकता अगर ये हालत पूरे 6 वक़्त तक रही तो उस हालत में जो नमाज़ें फौत हुयीं उन की क़ज़ा वाजिब नहीं।
जो नमाज़ जैसी फौत हुयी उस की क़ज़ा वैसी ही पढ़ी जायेगी, मस्लन सफ़र में नमाज़ क़ज़ा हुयी तो चार रकअत वाली दो ही पढ़ी जायेगी अगर्चे इक़ामत की हालत में पढ़ी और हालते इक़ामत में फौत हुयी तो चार रकअत वाली की क़ज़ा चार रकअत है अगर्चे सफ़र में पढ़े। अलबत्ता क़ज़ा पढ़ने के वक़्त कोई उज़्र है तो उस का ऐतबार किया जायेगा, मस्लन जिस वक़्त फौत हुई थी उस वक़्त खड़ा हो कर पढ़ सकता था और अब क़ियाम नहीं कर सकता तो बैठ कर पढ़े या उस वक़्त इशारे से ही पढ़ सकता है तो इशारे से पढ़े और सिहत के बाद उस का इआदा (दोहराना) नहीं।
लड़की नमाज़े इशा पढ़ कर या बे पढ़े सोयी आँख खुली तो मालूम हुआ कि पहला हैज़ आया तो उस पर वो इशा फ़र्ज़ नहीं और अगर एहतिलाम से बालिग़ हुयी तो उस का हुक्म वो है जो लड़के का है, पौ फ़टने (सुब्हे सादिक़ का वक़्त) से पहले आँख खुली तो उस वक़्त की नमाज़ फ़र्ज़ है अगर्चे पढ़ कर सोयी और पौ फटने के बाद आँख खुली तो इशा का इआदा करे और उम्र से बालिग़ हुयी यानी उस की उम्र पूरे पंद्रह साल की हो गयी तो जिस वक़्त पूरे पंद्रह साल की हुयी उस वक़्त की नमाज़ उस पर फ़र्ज़ है अगर्चे पहले पढ़ चुकी हो।
पाँचों फ़र्ज़ में बाहम और फ़र्ज़ व वित्र में तरतीब ज़रूरी है कि पहले फ़ज्र फिर ज़ुहर फिर अस्र फिर मग़रिब फिर इशा फिर वित्र पढ़े, ख्वाह ये सब क़ज़ा हों या बाज़ क़ज़ा बाज़ अदा, मस्लन ज़ुहर की क़ज़ा हो गयी तो फ़र्ज़ है कि उसे पढ़ कर अस्र पढ़े या वित्र क़ज़ा हो गया तो इसे पढ़ कर फ़ज्र पढ़े अगर याद होते हुये अस्र या वित्र की पढ़ ली तो नाजाइज़ है।
अगर वक़्त में इतनी गुंजाइश नहीं कि वक़्ती और क़ज़ायें सब पढ़ ले तो वक़्ती और क़ज़ा नमाज़ों में जिस की गुंजाइश हो पढ़े बाक़ी में तरतीब साकित है, मस्लन नमाज़े इशा व वित्र क़ज़ा हो गये और फ़ज्र के वक़्त में पाँच रकअत की गुंजाइश है तो वित्र व फ़ज्र पढ़े और 6 रकअत की वुस'अत हो तो इशा व फ़ज्र पढ़े।
तरतीब के लिये मुत्लक़ वक़्त का एतबार है, मुस्तहब वक़्त होने की ज़रूरत नहीं तो जिस की ज़ुहर की नमाज़ क़ज़ा हो गयी और आफ़ताब ज़र्द होने से पहले ज़ुहर से फ़ारिग़ नहीं हो सकता मगर आफ़ताब डूबने से पहले दोनों पढ़ सकता है तो पहले ज़ुहर पढ़े फिर अस्र।
अगर वक़्त में इतनी गुंजाइश है कि मुख्तसर तौर पर पढ़े तो दोनों पढ़ सकता है और उम्दा तरीके से पढ़े तो दोनों नमाज़ों की गुंजाइश नहीं तो इस सूरत में भी तरतीब फ़र्ज़ है और बा-क़द्रे जवाज़ जहाँ तक इख़्तिसार कर सकता है करे।
वक़्त की तंगी से तरतीब साकित होना उस वक़्त है कि शुरू करते वक़्त वक़्त तंग हो, अगर शुरू करते वक़्त गुंजाइश थी और ये याद था कि उस वक़्त से पेश्तर की नमाज़ क़ज़ा हो गयी है और नमाज़ में तूल दिया कि अब वक़्त तंग हो गया तो ये नमाज़ ना होगी। हाँ! अगर तोड़कर फ़िर से पढ़े तो हो जायेगी और क़ज़ा नमाज़ याद ना थी और वक़्ती नमाज़ में तूल दिया कि वक़्त तंग हो गया अब याद आयी तो हो गई क़त'अ ना करे।
वक़्त तंग होने ना होने में उस के गुमान का ऐतबार नहीं बल्कि ये देखा जायेगा कि हक़ीक़तन वक़्त तंग था या नहीं मस्लन जिस की नमाज़े इशा क़ज़ा हो गयी और फ़ज्र का वक़्त तंग होना गुमान कर के फ़ज्र की पढ़ ली फिर ये मालूम हुआ कि वक़्त तंग ना था तो नमाज़े फ़ज्र ना हुयी अब अगर दोनों की गुंजाइश हो तो इशा पढ़कर फ़ज्र पढ़े वरना फ़ज्र पढ़ ले अगर दोबारा फिर ग़लती मालूम हुयी तो वही हुक्म है यानी दोनों पढ़ सकता है तो दोनों पढ़े वरना सिर्फ फ़ज्र पढ़े और अगर फ़ज्र का इआदा ना किया इशा पढ़ने लगा और बा-क़द्रे तशह्हुद बैठने ना पाया था कि आफ़ताब निकल आया तो फ़ज्र की नमाज़ जो पढ़ी थी हो गयी। यूँ ही अगर फ़ज्र की नमाज़ क़ज़ा हो गयी और ज़ुहर के वक़्त में दोनों नमाज़ों की गुंजाइश इस के गुमान में नहीं है और ज़ुहर पढ़ ली फिर मालूम हुआ कि गुंजाइश है तो ज़ुहर ना हुई, फ़ज्र पढ़ कर ज़ुहर पढ़े यहाँ तक कि अगर फ़ज्र पढ़ कर ज़ुहर की एक रकअत पढ़ सकता है तो फ़ज्र पढ़ कर ज़ुहर शुरू करे।
जुम्आ के दिन फ़ज्र की नमाज़ क़ज़ा हो गयी अगर फ़ज्र पढ़ कर जुम्आ में शरीक हो सकता है तो फ़र्ज़ है कि पहले फ़ज्र पढ़े अगर्चे खुत्बा होता हो और अगर जुम्आ ना मिलेगा मगर ज़ुहर का वक़्त बाक़ी रहेगा जब भी फ़ज्र पढ़ कर ज़ुहर पढ़े और अगर ऐसा है कि फ़ज्र पढ़ने में जुम्आ भी जाता रहेगा और जुम्आ के साथ वक़्त भी खत्म हो जायेगा तो जुम्आ पढ़ ले फिर फ़ज्र पढ़े इस सूरत में तरतीब साकित है।
अगर वक़्त की कमी के सबब तरतीब साकित हो गयी और वक़्ती नमाज़ पढ़ रहा था कि नमाज़ पढ़ते हुये में वक़्त खत्म हो गया तो तरतीब ऊद ना करेगी यानी वक़्ती नमाज़ हो गयी, मगर फ़ज्र व जुम्आ में कि वक़्त निकल जाने से ये खुद ही नहीं हुयीं।
क़ज़ा नमाज़ याद ना रही और वक़्तिया पढ़ ली पढ़ने के बाद याद आयी तो वक़्तिया हो गयी और पढ़ने में याद आयी तो गयी। अपने को बावुज़ू गुमान कर के ज़ुहर पढ़े फिर वुज़ू कर के अस्र पढ़े फिर मालूम हुआ कि ज़ुहर में वुज़ू ना था तो अस्र की हो गयी सिर्फ ज़ुहर का इआदा करे।
फ़ज्र की नमाज़ क़ज़ा हो गयी और याद होते हुये ज़ुहर की पढ़ ली फिर फ़ज्र की पढ़ी तो ज़ुहर की ना हुयी, अस्र पढ़ते वक़्त ज़ुहर की याद थी मगर अपने गुमान में ज़ुहर को जाइज़ समझा था तो अस्र की हो गयी गर्ज़ ये कि फर्ज़िय्यते तरतीब से जो नावाकिफ़ है उस का हुक्म भूलने वाले कि मिस्ल है कि उस की नमाज़ हो जायेगी।
6 नमाज़ें जिस की क़ज़ा हो गयी की छठी का वक़्त खत्म हो गया उस पर तरतीब फ़र्ज़ नहीं, अब अगर्चे बावजूद वक़्त की गूंजाइश और याद के वक़्ती पढ़ेगा हो जायेगी ख्वाह वो सब एक साथ क़ज़ा हुयीं मस्लन एक दम से 6 वक़्तों की ना पढ़ी या मुतफ़र्रिक़ तौर पर क़ज़ा हुयीं मस्लन 6 दिन फ़ज्र की नमाज़ ना पढ़ी और बाक़ी नमाज़ें पढ़ता रहा मगर उन के पढ़ते वक़्त वो क़ज़ायें भूला हुआ था ख्वाह वो सब पुरानी हों या बाज़ नयी बाज़ पुरानी मस्लन एक महीना की नमाज़ ना पढ़ी फिर पढ़नी शुरु की फिर एक वक़्त की क़ज़ा हो गयी तो उस के बाद की नमाज़ हो जायेगी अगर्चे उस का क़ज़ा होना याद हो।
जब 6 नमाज़ें क़ज़ा होने के सबब तरतीब साक़ित हो गयी तो उन में से अगर बाज़ पढ़ ली कि 6 से कम रह गयी तो वो तरतीब ऊद ना करेगी यानी उन में से अगर 2 बाक़ी हों तो बावजूद याद के वक़्ती नमाज़ हो जायेगी अलबत्ता अगर सब क़ज़ायें पढ़ ली तो अब फिर साहिबे तरतीब हो गया कि अब अगर कोई नमाज़ क़ज़ा होगी तो बा-शराइत साबिक़ उसे पढ़ कर वक़्ती पढ़े वरना ना होगी।
यूँ ही अगर भूलने या तंगी -ए- वक़्त के सबब तरतीब साक़ित हो गयी तो वो भी ऊद ना करेगी मस्लन भूल कर नमाज़ पढ़ ली अब याद आया तो नमाज़ का इआदा नहीं अगर्चे वक़्त में बहुत कुछ गुंजाइश हो।
बावजूदे याद और गुंजाइशे वक़्त के वक़्ती नमाज़ की निस्बत जो कहा गया कि ना होगी इस से मुराद ये है कि वो नमाज़ मौक़ूफ़ है अगर वक़्ती पढ़ता गया और क़ज़ा रहने दी तो जब दोनों मिल कर 6 हो जायेंगी यानी छठी का वक़्त खत्म हो जायेगा तो सब सहीह हो गयीं और अगर इस दरमियान में क़ज़ा पढ़ ली तो सब गयीं यानी नफ़्ल हो गयीं, सब को फिर से पढ़े।
बाज़ नमाज़ पढ़ते वक़्त क़ज़ा याद थी और बाज़ में याद ना रही तो जिन में क़ज़ा याद है उन में पाँचवी का वक़्त खत्म हो जाये (यानी क़ज़ा समेत छठी का वक़्त हो जाये) तो अब सब हो गयीं और जिन के अदा करते वक़्त क़ज़ा की याद ना थी उन का ऐतबार नहीं। औरत की एक नमाज़ क़ज़ा हुयी उस के बाद हैज़ आया तो हैज़ से पाक हो कर पहले क़ज़ा पढ़ ले फिर वक़्ती पढ़े, अगर क़ज़ा याद होते हुये वक़्ती पढ़ेगी तो ना होगी, जबकि वक़्त में गुंजाइश हो।
जिस के ज़िम्मे क़ज़ा नमाज़ें हों अगर्चे उन का पढ़ना जल्द से जल्द वाजिब है मगर बाल बच्चों की खुर्द नोश और अपनी ज़रूरिय्यात की फ़राहमी के सबब ताखीर जाइज़ है, तो कारोबार भी करे और जो वक़्त फुरसत का मिले उस में क़ज़ा पढ़ते रहे यहाँ तक कि पूरी हो जायें।
क़ज़ा नमाज़ें नवाफिल से अहम हैं यानी जिस वक़्त नफ़्ल पढ़ता है उन्हें छोड़ कर उन के बदले क़ज़ायें पढ़े कि बरीउज़्ज़िम्मा हो जाये अलबत्ता तरावीह और बारह रकअतें सुन्नते मुअक्किदा की ना छोड़े। मन्नत की नमाज़ में किसी खास वक़्त या दिन की क़ैद लगायी तो उसी वक़्त या दिन में पढ़नी वाजिब है वरना क़ज़ा हो जायेगी और अगर वक़्त या दिन मुअय्यन नहीं तो गुंजाइश है।
किसी शख्स की एक नमाज़ क़ज़ा हो गयी और ये याद नहीं कि कौन सी नमाज़ थी तो एक दिन की नमाज़ें पढ़े। यूँ ही अगर दो नमाज़ें दो दिन में क़ज़ा हुयीं तो दोनों दिनों की सब नमाज़ें पढ़े। यूँ ही तीन दिन की तीन नमाज़ें और पाँच दिन की पाँच।
एक दिन अस्र की और एक दिन ज़ुहर की क़ज़ा हो गयी और ये याद नहीं कि पहले दिन की कौन सी नमाज़ है तो जिधर तबियत जमे उसे पहले क़रार दे और किसी तरफ दिल नहीं जमता तो जो चाहे पहले पढ़े मगर दूसरी पढ़ने के बाद जो पहली पढ़ी है फेरे और बेहतर ये है कि पहले ज़ुहर पढ़े फिर अस्र फिर ज़ुहर का इआदा और अगर पहले अस्र पढ़े फिर ज़ुहर फिर अस्र का इआदा किया तो भी हर्ज नहीं।
अस्र की नमाज़ पढ़ने में याद आया कि नमाज़ का एक सजदा रह गया मगर ये याद नहीं कि इसी नमाज़ का रह गया या ज़ुहर का तो जिधर दिल जमे उस पर अमल करे और किसी तरफ़ ना जमा तो अस्र पूरी कर के आखिर में एक सजदा कर ले फिर ज़ुहर का इआदा करे फिर अस्र का और इआदा ना किया तो भी हर्ज नहीं।
जिस की नमाज़ें क़ज़ा हो गयी और इन्तिक़ाल हो गया अगर वसिय्यत कर गया और माल भी छोड़ा तो उसकी तिहाई से हर फर्ज़ व वित्र के बदले निस्फ सा'अ गेहूँ या एक सा'अ जौ सदक़ा करें और माल ना छोड़ा और वारिस फिदिया देना चाहें तो कुछ माल अपने पास से या क़र्ज़ ले कर मिस्कीन पर तसद्दुक़ करके उस के क़ब्ज़े में दें और मिस्कीन अपनी तरफ से उसे हिबा कर दे और ये क़ब्ज़ा भी कर ले फिर ये मिस्कीन को दे, यूँ ही लौट फेर करते रहे यहाँ तक कि सब का फिदिया अदा हो जाये। और अगर माल छोड़ा मगर वो नाकाफ़ी है जब भी यही करें और वसिय्यत ना की और वली अपनी तरफ से बतौरे अहसान फिदिया देना चाहे तो दे और अगर माल की तिहाई बा-क़द्रे काफी है और वसिय्यत ये की कि उस में से थोड़ा लेकर लौट फेर करके फिदिया पूरा कर लें और बाक़ी को वुरसा या और कोई ले ले तो गुनाहगार हुआ।
मय्यत ने वली को अपने बदले नमाज़ पढ़ने की वसिय्यत की और वली ने पढ़ भी ली तो ये नाकाफ़ी है। यूँ ही अगर मर्ज़ की हालत में नमाज़ का फिदिया दिया तो अदा ना हुआ। बाज़ नावाकिफ़ यूँ फ़िदिया देते हैं कि नमाज़ों के फ़िदिया की क़ीमत लगाकर सब के बदले में क़ुरआन मजीद देते हैं इस तरह कुल फ़िदिया अदा नहीं होता ये महज़ बे-अस्ल बात है बल्कि सिर्फ उतना ही अदा होगा जिस क़ीमत का मुस्हफ़ शरीफ़ है। शाफ़ई मज़हब की नमाज़ क़ज़ा हुयी उस के बाद हनफ़ी हो गया तो हनफियों के तौर पर क़ज़ा पढ़े।
जिस की नमाज़ों में नुक़्सान व कराहत हो वो तमाम उम्र की नमाज़ें फेरे तो अच्छी बात है और कोई ख़राबी ना हो तो ना चाहिये और करे तो फ़ज्र व अस्र के बाद ना पढ़े और तमाम रकअतें भरी पढ़े और वित्र में क़ुनूत पढ़ कर तीसरी के बाद क़ादा करे फिर एक और मिलाये कि चार हो जायें।
क़ज़ा -ए- उम्री कि शबे क़द्र या आखिर जुम्आ रमज़ान में जमाअत से पढ़ते हैं और ये समझते हैं कि उम्र भर की क़ज़ायें उसी एक नमाज़ से अदा हो गयीं, ये बातिल महज़ है