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सुनन व नवाफ़िल का बयान | Namaz Ke Sunan O Nawafil


By ilmnoohai.com   ·  
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सुनन व नवाफ़िल का बयान | Namaz Ke Sunan O Nawafil

सुनन व नवाफ़िल का बयान | Namaz Ke Sunan O Nawafil

नमाज़े तहज्जुद:इसी सलातुल लैल की एक किस्म तहज्जुद है। तहज्जुद ये है कि इशा की नमाज़ के बाद सो कर उठें और नफ्ल पढ़ें।

सोने से पहले जो कुछ पढ़ें वो तहज्जुद नहीं।

तहज्जुद नफ़्ल का नाम है तो अगर कोई इशा के बाद सो कर उठा और कज़ा नमाज़ें पढ़ीं तो उसे तहज्जुद ना कहेंगे।

नमाज ए तहज्जुद की कितनी रकात होती है?

बाज़ सुन्नतें मुअक्किदा हैं यानी शरीअ़त में उन पर ताकीद आयी है और एक बार भी तर्क करने वाला क़ाबिले मलामत है और तर्क की आदत फ़िस्क़ और गुनाह है और बाज़ आइम्मा ने फ़रमाया कि ऐसा शख्स गुमराह ठहराया जायेगा और गुनाहगार है अगर्चे इस का गुनाह वाजिब को छोड़ने से कम है।

सुन्नते मुअक्किदा के बारे में मिलता है कि इस को तर्क करने का गुनाह हराम के क़रीब है और मआज़ अल्लाह हुज़ूर ﷺ की शफ़ाअ़त से महरूमी के बाइस है कि नबी -ए- करीम ﷺ ने इरशाद फ़रमाया कि जो मेरी सुन्नत को तर्क करेगा उसे मेरी शफ़ाअ़त ना मिलेगी।

सुन्नते मुअक्किदा को सुननुल हुदा भी कहते हैं।

दूसरी क़िस्म सुन्नत की गैर मुअक्किदा है जिसे सुननुज़्-ज़वाइद भी कहते हैं। इस पर शरीअ़त में ताकीद नहीं आयी, इसे कभी-कभी मुस्तहब और मंदूब भी कहते हैं और नफ्ल आम है कि सुन्नत पर भी इस का इत्लाक़ आया है और इस के गैर को भी नफ्ल कहते हैं। यही वजह है कि फुक़हा नवाफ़िल के बाब में सुनन का भी ज़िक्र करते हैं कि नफ्ल इन को भी शामिल है। नफ्ल के बारे में जो भी बयान किया जायेगा वो सुन्नतों के लिये भी होगा और अगर सुन्नतों के लिये कोई खास बात होगी तो उसे अलग किया जायेगा बाक़ी मुत्लक़न बयान किया जायेगा।

सुन्नते मुअक्किदा ये नमाज़ें हैं :

  • 2 रकाअ़त फ़ज्र के फ़र्ज़ से पहले
  • 4 रकाअ़त ज़ुहर के फ़र्ज़ से पहले
  • 2 रकाअ़त ज़ुहर के फ़र्ज़ के बाद
  • 2 रकाअ़त मगरिब के फ़र्ज़ के बाद
  • 2 रकाअ़त इशा के फ़र्ज़ के बाद
  • 4 रकाअ़त जुम्आ के फ़र्ज़ से पहले
  • 4 रकाअ़त जुम्आ के फ़र्ज़ के बाद

अफ्ज़ल ये है कि जुम्आ के फ़र्ज़ के बाद 4 रकाअ़त पढ़े फ़िर 2 ताकि दोनों हदीसों पर अ़मल हो जाये। जो सुन्नतें चार रकाअ़ती हैं मस्लन ज़ुहर और जुम्आ की तो उन में चार पर सलाम फेरा जायेगा, ऐसा नहीं कि दो पर सलाम फेर दें और अगर ऐसा किया तो सुन्नत अदा ना होगी। अगर 4 रकाअ़त की मन्नत मानी और 2-2 कर के चार पढ़ी तो अदा ना हुयी बल्कि ज़रूरी है एक सलाम से पढ़े।

सब सुन्नतों में से क़वी तर सुन्नत फ़ज्र की हैं यहाँ तक बाज़ ने इसे वाजिब तक कहा है। अगर कोई इस का इन्कार करे तो अगर शुब्हतन (Confusion) या जहल की वजह से हो तो उस पर कुफ्र का खौफ़ है और अगर दानिस्ता तौर पर बिला शुब्हा इन्कार करे तो उसकी तक्फ़ीर की जायेगी। ये सुन्नतें ना बिला उज़्र बैठ कर हो सकती हैं ना सवारी पर और ना चलती गाड़ी पर और इस का हुक्म इन बातों में बिल्कुल वित्र नमाज़ की तरह है।

फ़ज्र की सुन्नतें सबसे क़वी हैं फिर मगरिब की सुन्नतें, फ़िर ज़ुहर के बाद की, फिर इशा के बाद की और फिर ज़ुहर से पहले की सुन्नतें और असाह (ज़्यादा सहीह) ये है कि फ़ज्र के बाद ज़ुहर की पहली सुन्नतों का मर्तबा है कि हदीस में खास इन के बारे में फ़रमाया कि जो इन्हें तर्क करेगा उसे मेरी शफ़ाअ़त ना पहुँचेगी। अगर कोई आलिम मर्जा -ए- फ़तवा हो यानी उस के पास कसरत से सवालात आते हों और जवाब देने में इस क़द्र मश्गूल रहता हो कि वक़्त नहीं मिलता तो फ़ज्र की सुन्नतों के अलावा बाक़ी तमाम सुन्नते तर्क कर सकता है यानी मौक़ूफ रख सकता है और अगर वक़्त के अंदर मौक़ा मिले तो पढ़ ले वरना माफ़ है और फ़ज्र की सुन्नतें इस हालत में भी तर्क नहीं कर सकता।

फ़ज्र की नमाज़ क़ज़ा हो गयी और ज़वाल से पहले पढ़ ली तो सुन्नतें भी पढ़ें वरना नहीं। फ़ज्र के इलावा और सुन्नतें क़ज़ा हो गयी तो उन की क़ज़ा नहीं। दो रकाअ़त नफ्ल पढ़े और ये गुमान था कि फ़ज्र तुलूअ़ नहीं हुआ और बाद को मालूम हुआ कि हो चुका था तो ये दो रकाअ़त फ़ज्र की सुन्नतों के क़ाइम मक़ाम (बराबर) हो जायेंगे और अगर 4 रकाअ़त की निय्यत की थी और 2 रकाअ़त तुलूअ़ से पहले और 2 तुलूअ़ के बाद अदा हुयी तो सुन्नतों के क़ाइम मक़ाम नहीं।

फ़ज्र तुलूअ़ होने से पहले सुन्नतें जाइज़ नहीं और अगर तुलूअ़ का शक हो तो भी जाइज़ नहीं और तुलूअ़ के साथ-साथ शुरू की तो जाइज़ है। अगर जुम्आ या ज़ुहर की सुन्नतें फ़ौत हो जायें तो अगर फ़र्ज़ नमाज़ के बाद वक़्त बाक़ी है तो इसे पढ़ ले और बेहतर ये है कि फ़र्ज़ नमाज़ के बाद जो सुन्नतें हैं उनके बाद इन्हें पढ़े। फ़ज्र की सुन्नत क़ज़ा हो गयी और फ़र्ज़ पढ़ ले तो सुन्नतों की क़ज़ा नहीं। अल्बत्ता इमाम मुहम्मद फ़रमाते हैं कि तुलूअ़ -ए- आफताब के बाद पढ़ ले तो बेहतर है और तुलूअ़ से पहले बिल इत्तिफाक़ मना है। आज कल आवाम फ़र्ज़ के बाद फ़ौरन पढ़ लेते हैं ये नाजाइज़ है, अगर पढ़ना हो तो तुलूअ़ -ए- आफताब के बाद ज़वाल से पहले पढ़े।

सुन्नते फ़ज्र पढ़ ली और फ़र्ज़ क़ज़ा हो गये तो फ़र्ज़ अदा करने में सुन्नतों को दोहराना ज़रूरी नहीं। फ़र्ज़ तन्हा पढ़े तो भी सुन्नतों का तर्क जाइज़ नहीं। सुन्नते फ़ज्र की पहली रकाअ़त में सूरहे काफ़िरून और दूसरी में सूरहे इख्लास पढ़ना सुन्नत है। जमाअ़त क़ाइम होने के बाद किसी नफ्ल का शुरू करना जाइज़ नहीं सिवाये सुन्नते फ़ज्र के जबकि ये जाने कि सुन्नत पढ़ने के बाद जमाअ़त मिल जायेगी अगर्चे क़ादा (अत्तहिय्यात) में ही शामिल होगा और सुन्नत सफ़ के बराबर ना पढ़े बल्कि सफ़ों से दूर कहीं अलग पढ़े या अपने घर में पढ़े और मस्जिद में जगह ना हो तो बाहर पढ़े।

अगर जमाअ़त शुरू नहीं हुई तो जहाँ चाहे सुन्नतें पढ़े पर अगर वक़्त कम है कि इसके सुन्नत पढ़ने से पहले जमाअ़त खड़ी हो जायेगी तो वहाँ ना पढ़े कि इस की वजह से सफ़ क़तअ़ होगी। इमाम को रुकूअ़ में पाया और ये पता नहीं कि पहली रकाअ़त का रुकूअ़ है या दूसरी रकाअ़त का तो सुन्नत को तर्क करे और जमाअ़त में शामिल हो जाये। वक़्त में गुंजाइश हो और मकरूह वक़्त ना हो तो जितने चाहे नवाफ़िल पढ़े पर फ़र्ज़ नमाज़ या जमाअ़त को छोड़ कर नफ्ल में मश्गूल होना नाजाइज़ है।

सुन्नत और फ़र्ज़ के दरमियान बातें नहीं करनी चाहिये, इससे सवाब कम हो जाता है। इसी तरह वो तमाम बातें जो सुन्नत के बाद फ़र्ज़ पढ़ने में देरी का सबब बने उस का भी यही हुक्म है यानी सवाब कम हो जाता है। अगर सुन्नत पढ़ कर बात चीत की तो बेहतर ये है कि सुन्नत को दोहरा ले क्योंकि एक तो सवाब कम हो जाता है और दूसरी बात ये कि बाज़ के नज़दीक कलाम करने से सुन्नत ही फ़ासिद हो जाती है अगर्चे ज़्यादा सहीह ये है कि फ़ासिद नहीं होती जैसा कि आला हज़रत रहीमहुल्लाह त'आला लिखते हैं कि सुन्नतेंं बातिल ना होंगी लिहाज़ा इख्तिलाफ़ से बचने और सवाब के लिये दोहराना बेहतर है मगर ऐसा तब किया जाये जब इसकी वजह से जमाअ़त में शिर्कत से फ़र्क़ ना पड़े और फ़ज्र की सुन्नतें नहीं दोहराई जायेगी।

सुन्नत के बाद खरीदो फ़रोख्त या खाने में मशगूल हुआ तो सुन्नतों को दोहराये और अगर सुन्नते बादीया (यानी फ़र्ज़ के बाद वाली सुन्नतें) हों और खाना लाया गया और खाने के बाद मज़ा होने का अंदेशा हो तो पहले खा ले जबकि वक़्त हो वरना पहले पढ़े। फ़र्ज़ पढ़ने के बाद जो सुन्नते बादिया है उस में बिला उज़्र ताखीर करना मकरूह है अगर्चे अदा देर से भी हो जायेगी। इशा और अ़सर के पहले और इशा के बाद 4-4 रकाअ़तें एक सलाम से पढ़ना मुस्तहब है। और इशा के बाद ये भी कर सकता है कि 2 रकाअ़त ही पढ़े, मुस्तहब अदा हो जायेगा।

यूँ ही ज़ुहर के बाद 4 रकाअ़त पढ़ना मुस्तहब है कि हदीस में फ़रमाया : जिस ने ज़ुहर से पहले और ज़ुहर के बाद 4-4 रकाअ़त की मुहाफिज़त की तो अल्लाह त'आला उस पर आग को हराम फ़रमा देगा।

अ़ल्लामा सय्यिद तहतावी फ़रमाते हैं कि वो सिरे से आग में दाखिल ही ना होगा, उस के गुनाह मिटा दिये जायेंगे और उस पर जो मुतालिबात हैं तो अल्लाह उस से फरीक़ को राज़ी कर देगा या ये मतलब है कि अल्लाह त'आला उस बन्दे को ऐसे कामों की तौफ़ीक़ देगा जिस पर सज़ा ना हो। अ़ल्लामा शामी फ़रमाते हैं कि ये उसके लिये बशारत है कि स'आदत पर उस का खातिमा होगा और वो दोज़ख में ना जायेगा।

सुन्नत की मन्नत मानी और पढ़ी तो सुन्नत अदा हो जायेगी। शुरू कर के तोड़ दी फिर पढ़ी तो भी सुन्नत अदा हो जायेगी। नफ्ल नमाज़ मन्नत मान कर पढ़ना बगैर मन्नत मान कर पढ़ने से बेहतर है जब कि मन्नत किसी खास शर्त के साथ ना हो मस्लन फुलाँ बीमारी ठीक हो जायेगी तो इतनी नमाज़ पढूँगा। सुन्नत को बिना मन्नत माने पढ़ना अफज़ल है। मगरिब के बाद 6 रकाअ़तें मुस्तहब हैं, इनको सलातुल अव्वाबीन कहते हैं। इस नमाज़ को एक सलाम से पढ़ सकता है, दो से और तीन से भी। तीन सलाम से पढ़ना अफज़ल है यानी दो-दो कर के।

ज़ुहर, मगरिब और इशा के बाद जो मुस्तहब हैं उस में सुन्नते मुअक्किदा दाखिल हैं मस्लन ज़ुहर के बाद चार पढ़ें तो मुस्तहब और मुअक्किदा दोनों अदा हो गयीं और यूँ भी हो सकता है कि मुस्तहब और मुअक्किदा को एक ही सलाम से अदा करे यानी चार रकाअ़त पर सलाम फेरे।

सुन्नते मुअक्किदा में जब तीसरी रकाअ़त के लिये खड़ा हो तो सना और तअ़व्वुज़ ना पढ़े और इन के अलावा नफ्ल में अत्तहिय्यात के बाद दुरूद भी पढ़े और तीसरी रकाअ़त के शुरू में सना और तअ़व्वुज़ भी पढ़े। बशर्ते कि दो रकाअ़त पर क़ादा किया हो वरना पहली रकाअ़त में पढ़ी गयी सना और तअ़व्वुज़ काफ़ी है। मन्नत की नमाज़ में भी अत्तहिय्यात के बाद दुरूद पढ़े और तीसरी में सना व तअ़व्वुज़।

चार रकाअ़त नफ्ल नमाज़ में 2 पर ना बैठा और जान बूझकर भी तर्क किया तो नमाज़ फासिद नहीं होगी और भूल कर तीसरी रकाअ़त के लिये खड़ा हो गया तो वापस ना लौटे और आखिर में सजदा-ए-सहव कर ले नमाज़ कामिल हो जायेगी। तीन रकाअ़तें पढ़ी तो अगर दूसरी पर नहीं बैठा तो नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी। अगर दो रकाअ़त की निय्यत बाँधी थी और बिना क़ाइदा किये तीसरी के लिये खड़ा हो गया तो वापस लौट आये वरना नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी।

नमाज़ में तवील क़ियाम कसरते रकाअ़त से बेहतर है यानी इसे यूँ समझें कि 4 रकाअ़त नफ्ल जितनी देर में पढ़ते हैं, उतनी देर लगा कर 2 रकाअ़त पढ़ना ज्यादा अच्छा है यानी क़ियाम (खड़े होने) को लंबा कर दिया जाये और दूसरे अ़रकान को भी इत्मिनान व सुकून के साथ अदा किया जाये।

नफ्ल नमाज़ घर में पढ़ना अफज़ल है मगर,

नफ्ल नमाज़ घर में पढ़ना अफज़ल है | Nafal Namaz Ghar Me Padhna Afzal Hai

  • तरावीह
  • तह्यतुल मस्जिद
  • सफ़र से वापसी पर दो रकाअ़त नफ्ल
  • एहराम की दो रकाअ़तें मस्जिद में पढ़ना अफज़ल है और,
  • तवाफ़ की दो रकाअ़तें मक़ामे इब्राहीमी के पास
  • मोअ़तकिफ़ के नवाफ़िल और
  • सूरज गहन की नमाज़ मस्जिद में पढ़ें।

अगर ये खौफ़ हो कि घर जा कर नफ्ल पढ़ने के बजाये कामो में मशगूल हो जायेगा या जी ना लगेगा और नफ्ल फौत हो जायेंगे या खुशूअ़ और खुज़ुअ़ (तवज्जोह) में कमी आयेगी तो मस्जिद में ही पढ़े। नफ्ल की हर रकाअ़त में इमाम व मुक़्तदी दोनो पर क़िरअत फ़र्ज़ है। नफ्ल नमाज़ वैसे तो नफ्ल ही है कि ना पढ़े तो गुनाहगार ना होगा पर अगर जान बूझ कर नफ्ल शुरु की तो उसे पूरा करना वाजिब हो जाता है यानी अगर तोड़ेगा तो क़ज़ा वाजिब हो जायेगी।

अगर जान बूझ कर शुरु नहीं की मस्लन फ़र्ज़ की निय्यत से शुरु की और बीच में पता चला कि फर्ज़ तो पढ़ चुका था तो अब वो नफ्ल हो गई पर अगर तोड़ देगा तो क़ज़ा वाजिब नहीं होगी जबकि याद आने पर फौरन तोड़ दे वरना अगर याद आने के बाद उसे पढ़ने का क़स्द किया कि चलो पढ़ लेते हैं तो अब अगर उसे तोड़ेगा तो क़ज़ा वाजिब हो जायेगी।

अगर बिला क़स्द नमाज़ फासिद हो गई तो भी क़ज़ा वाजिब है मस्लन कोई तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ रहा था कि दरमियान में पानी पर क़ादिर हो गया। यूँ ही नफ्ल पढ़ते हुये औरत को हैज़ आ गया तो क़ज़ा वाजिब है, तहारत के बाद पढ़े। नफ्ल नमाज़ जैसा कि बयान हुआ कि शुरु करने पर उसे मुकम्मल करना वाजिब हो जाता है तो शुरु करने की दो सूरतें हैं पहली ये कि तकबीरे तहरीमा (अल्लाहु अकबर) के साथ शुरु करे और दूसरी ये कि तीसरी रकाअ़त के लिए खड़ा हो जाये बशर्ते कि शुरु सहीह हो और अगर शुरु सहीह ना हो मस्लन औरत या उम्मी की इक़्तिदा में शुरु की या बे वुज़ू नापाक कपड़ो में शुरु कर दी तो क़ज़ा वाजिब नहीं है।

फ़र्ज़ पढ़ने वाले की इक़्तिदा में नफ्ल की निय्यत कर के शामिल हुआ फिर याद आया कि ये फर्ज़ मुझे पढ़नी है तो तोड़ कर उसी फर्ज़ की निय्यत कर के शामिल हो गया जो वो पढ़ रहा था या तोड़ कर दूसरे नफ्ल की निय्यत कर के शामिल हुआ तो उस नफ्ल की क़ज़ा वाजिब नहीं। तुलुअ़, गुरूब और निस्फ़ुन्नहार के वक़्त नफ्ल शुरु की तो वाजिब है कि तोड़ दे और गैरे मक़रूह वक़्त में क़ज़ा अदा करे और दूसरे वक़्ते मक़रूह में पढ़ ली तो अदा हो गई पर गुनाह हुआ और अगर ना तोड़े और पूरा कर ले तो भी अदा हो जायेगी पर गुनाह होगा, बिला वजहे शरई नफ्ल शुरु कर के तोड़ देना हराम है।

नफ्ल नमाज़ अगर्चे 4 रकाअ़त की निय्यत कर के शुरु की लेकीन फिर भी 2 ही रकाअ़त शुरु करने वाला क़रार दिया जायेगा क्योंकि नफ्ल की हर 2 रकाअ़त अलग अलग नमाज़ है यानी तीसरे के लिये खड़ा होना शुरु करना होगा। नफ्ल 4 रकाअ़त की निय्यत बाँधी और पहली दो रकाअ़त में तोड़ दी तो दो रकाअ़त की ही क़ज़ा वाजिब होगी क्योंकि नफ्ल की हर दो रकाअ़त अलग नमाज़ है। अगर बाद वाली 2 रकाअ़त में तोड़ दी तो भी दो की ही क़ज़ा वाजिब होगी लेकिन शर्त ये है कि दूसरी रकाअ़त पर क़ादा किया हो वरना फिर 4 की क़ज़ा वाजिब होगी।

सुन्नते मुअक्किदा और मन्नत की नमाज़ अगर्चे 4 रकाअ़ती हो, तोड़ने पर 4 की क़ज़ा करे। यूँ ही अगर 4 रकाअ़ती फर्ज़ पढ़ने वाले के पीछे नफ्ल की निय्यत बाँधी तो तोड़ देने पर 4 की क़ज़ा वाजिब है, पहली दो रकाअ़तों में तोड़ी हो या बाद वाली में। चार रकाअ़त की निय्यत बाँधी और चारों में क़िरअत ना की या पहली दो में या पिछ्ली दो में ना की या पहली दो में से एक रकाअ़त में ना की या दुसरी दो रकाअ़त में से एक में ना की या पहली दोनों और पिछ्ली दोनों में से एक में क़िरअत छोड़ दी तो इन 6 सूरतो में दो रकाअ़त क़ज़ा वाजिब है।

अगर दूसरी रकाअ़त में तशह्हुद (अत्तहिय्यात) की मिक़्दार बैठा और तोड़ दी तो कोई क़ज़ा वाजिब नहीं बशर्ते कि तीसरी के लिये खड़ा ना हुआ हो और दोनो में क़िरअत कर चुका हो मगर बा-वजहे तर्के वाजिब इआदा का हुक्म दिया जायेगा। नफ्ल नमाज़ पढ़ने वाले ने नफ्ल पढ़ने वाले की इक़्तिदा की अगर्चे तशह्हुद में हो तो जो हाल इमाम का है वही मुक़्तदी का होगा यानी जितनी की क़ज़ा उस पर वाजिब होती है उतनी ही इस पर होगी। खड़े होकर पढ़ने की क़ुदरत हो फिर भी नफ्ल बैठ कर पढ़ सकते हैं मगर खड़े हो कर पढ़ना अफ़ज़ल है। हदीस में बैठ कर पढ़ने वाले को खड़े हो कर पढ़ने के मुकाबले में निस्फ (आधा) बताया गया है यानी सवाब खड़े हो कर पढ़ने में ज़्यादा है।

अगर उज़्र की वजह से बैठ कर पढ़े तो इन्शा अल्लाह सवाब में कमी ना होगी। आज कल जो नफ्ल बैठ कर पढ़ने का रिवाज हो गया और इससे बज़ाहिर ऐसा मालूम होता है कि बैठकर पढ़ने को अफ़ज़ल समझते हैं, अगर ऐसा है तो ये ख्याल गलत है। वित्र के बाद जो दो रकाअ़त हैं उनको भी खड़े हो कर पढ़ना अफ़ज़ल है जिस हदीस में है कि हुज़ूर ﷺ ने वित्र के बाद नफ्ल बैठ कर पढ़े तो उसे दलील बनाना सही नहीं क्योंकि वो हुज़ूर के महसूसात में से है।

सहीह मुस्लिम शरीफ में हज़रते अ़ब्दुल्लाह बिन अम्र से हदीस है, कहते हैं कि मुझे खबर पहुँची कि हुज़ूर ﷺ ने इरशाद फ़रमाया कि खड़े हो कर पढ़ने वाले की नमाज़ आधी है, उसके बाद मै हुज़ूर की खिदमत में हाज़िर हुआ तो देखा कि आप बैठ कर नमाज़ अदा फरमा रहे है। मैंने सरे अक़दस पर हाथ रखा (कि कहीं बीमार तो नहीं) तो फ़रमाया : क्या ऐ अब्दुल्लाह? तो मैंने अ़र्ज़ की कि : हुज़ूर आपने तो ऐसा फ़रमाया है पर हुज़ूर बैठ कर नमाज़ अदा फरमाते हैं तो आप ﷺ ने इरशाद फरमाया कि हाँ पर मै तुम जैसा नहीं। अगर किसी ने रुकुअ़ की हद तक झुक कर नफ्ल का तहरीमा बांधा नमाज़ शुरू ना होगी। लेट कर नफ्ल नमाज़ जाइज़ नहीं जब तक उज़्र ना हो और अगर उज़्र हो तो जाइज़ है।

खड़े हो कर नमाज़ शुरू की थी फिर बैठ गया या बैठ कर शुरू की थी फिर खड़ा हो गया, दोनों सूरते जाइज़ हैं चाहे एक रकाअ़त खड़े हो कर पढ़ी और एक बैठ कर या एक ही रकाअ़त का कुछ हिस्सा खड़े होकर पढ़ा कुछ बैठ कर मगर दूसरी सूरत यानी खड़े हो कर शुरू की और फिर बैठ गया, इस में इख्तिलाफ है लिहाज़ा बचना बेहतर है। खड़े हो कर नफ्ल पढ़ रहा था और थक गया तो अ़सा या दीवार के सहारे टेक लगा कर बैठने में हर्ज नहीं। -और बिना थके ऐसा करे तो इस तरह बैठे जैसे तशह्हुद (अत्तहिय्यात पढ़ने) में बैठा जाता है और जब हाथ बांधें तो नाफ़ के नीचे बांधें जैसे क़याम में बांधते हैं।

शहर के बाहर सवारी पर भी नफ्ल जाइज़ है और ऐसे में क़िब्ला की तरफ़ मुँह करना भी शर्त नहीं यानी जिधर सवारी जा रही हो उधर मुँह होना चाहिये और अगर उधर नहीं तो नमाज़ जाइज़ नहीं और ऐसे में नमाज़ शुरू करते वक़्त भी क़िब्ला की तरफ मुँह ज़रूरी नहीं बल्कि सवारी जिस तरफ़ जा रही हो उधर ही मुँह कर के इशारे से रुकूअ़ व सुजूद करे और सजदा, रुकूअ़ से पास्ट हो यानी थोड़ा ज़्यादा झुके।

सवारी पर नफ्ल पढ़ते वक़्त अगर हाँकने की ज़रूरत पड़े और बिना अ़मले कसीर के थोड़े से अ़मले कसीर के थोड़े से अ़मल से हांक सकता हो मस्लन पैर की एक एड़ी से या एक हाथ में चाबुक है उस से डराया तो हर्ज नहीं पर बिला ज़रूरत ये जाइज़ नहीं। गाँव या खेमा का रहने वाला जब गाँव या खेमा से बाहर हो तो सवारी पर नफ्ल पढ़ सकता है। शहर के बाहर सवारी पर नफ्ल शुरु की थी और चलते-चलते शहर में दाखिल हो गया तो जब तक घर नहीं पहुँचा, सवारी पर पूरी कर सकता है।

गाड़ी और सवारी पर नमाज़ पढ़ने के लिये ये उज़्र हैं:

  • पानी बरस रहा हो।
  • ज़्यादा कीचड़ हो कि सर धंस जायेगा या जो कपड़ा बिछाया जायेगा वो पूरा सन जायेगा और ऐसी सूरत में सवारी ना हो तो खड़े हो कर इशारे से पढ़े।
  • साथी चले जायेंगे।
  • सवारी का जानवर शरीर है कि दोबारा सवार होने में दुश्वारी होगी या मददगार की ज़रूरत पड़ेगी और मददगार मौजूद नहीं है।
  • वो बूढ़ा है कि मददगार के बिना उतर चढ़ नहीं सकेगा और मददगार मौजूद नहीं और यही हुक्म औरत का है।
  • या मर्ज़ में ज्यादती होगी।
  • जान या
  • माल या
  • औरत को आबरू का अंदेशा हो।

चलती रेल गाड़ी पर भी फ़र्ज़ो वाजिब और सुन्नते फ़ज्र नहीं हो सकती और इस को जहाज़ और कश्ती के हुक्म में तसव्वुर करना गलती है कि कश्ती अगर ठहर भी जाये तो ज़मीन पर ना ठहरेगी और रेल गाड़ी ऐसी नहीं और कश्ती में भी उसी वक़्त नमाज़ जाइज़ है जब वो बीच दरिया में हो और अगर किनारे पर हो और खुश्क़ी पर आ सकता हो तो इस पर भी जाइज़ नहीं है लिहाज़ा जब स्टेशन पर गाड़ी ठहरे उस वक़्त ये नमाज़ें पढ़े और अगर देखे कि वक़्त जाता है तो जिस तरह भी मुम्किन हो पढ़ ले फिर जब मौक़ा मिले दोहरा ले जहां बंदो की तरफ़ से कोई शर्त या रुक्न मफ्क़ूद हो उस का यही हुक्म है।

किसी ने मन्नत मानी कि दो रकाअ़तें बिना तहारत के पढ़ेगा या क़िरअत नहीं करेगा या नंगा पढ़ेगा या एक या आधी रकाअ़त की मन्नत मानी तो इन सब सूरतो में उस पर दो रकाअ़त तहारत व क़िरअत और सित्र के साथ वाजिब हो गयी। अगर तीन रकाअ़त की मन्नत मानी तो चार वाजिब होंगी। मन्नत मानी के फुलाँ मक़ाम पर नमाज़ पढ़ेगा और उससे कम दर्जे के मक़ाम पर पढ़ी तो अदा हो गयी मस्लन मस्जिदे हराम में पढ़ने की मन्नत मानी और मस्जिदे क़ुद्स या घर की मस्जिद में अदा की तो हो गयी।

औरत ने मन्नत मानी कि कल नमाज़ पढ़ेगी या रोज़ा रखेगी और हैज़ आ गया तो क़ज़ा करे और अगर ये मन्नत मानी कि हालते हैज़ में पढ़ेगी तो कुछ नहीं। मन्नत मानी कि आज दो रकाअ़त पढ़ेगा और ना पढ़ी तो इस की क़ज़ा नहीं बल्कि कफ्फ़ारा देना होगा। महीना भर के नमाज़ की मन्नत मानी तो एक महीने के फ़र्ज़ और वित्र की मिस्ल उस पर वाजिब है, सुन्नत की मिस्ल नहीं मगर वित्र और मगरिब की जगह 4 रकाअ़त पढ़े यानी हर रोज़ 22 रकाअ़तें। अगर खड़े होकर पढ़ने की मन्नत मानी तो खड़े हो कर पढ़ना वाजिब है और मुत्लक़ नमाज़ की मन्नत है तो इख्तियार है।

नवाफ़िल तो बहुत कसीर हैं, जिन वक़्तों में मना है उनके अलावा जितने चाहे पढ़े मगर इन में से बाज़ जो हुज़ूर ﷺ से मरवी हैं वो बयान किये जाते हैं:

तह्यतुल मस्जिद | Tahiyatul Masjid

तह्यतुल मस्जिद | Tahiyatul Masjid Kya Hai?

तह्यतुल मस्जिद : जो शख्स मस्जिद में आया उसे दो रकाअ़त नमाज़ पढ़ना सुन्नत है बल्कि बेहतर ये है कि चार पढ़े। बुखारी व मुस्लिम में हज़रते अबू क़तादा रावी हैं कि हुज़ूर ﷺ ने इरशाद फ़रमाया कि जो शख्स मस्जिद में आये तो बैठने से पहले दो रकाअ़त नमाज़ पढ़ ले। अगर ऐसे वक़्त में मस्जिद आया कि उस वक़्त नफ्ल नमाज़ पढ़ना मकरूह है मस्लन बाद तुलूअ़ -ए- फ़ज्र या बाद नमाज़े अ़स्र तो तह्यतुल मस्जिद ना पढ़े बल्कि तस्बीहो तहलील और दुरूद शरीफ पढ़ने में मशगूल हो जाये कि मस्जिद का हक़ अदा हो जायेगा।

फ़र्ज़ या सुन्नत या कोई नमाज़ मस्जिद में पढ़ ली तो तह्यतुल मस्जिद अदा हो गई अगर्चे तह्यतुल मस्जिद की निय्यत ना की हो। इस नमाज़ का हुक्म उसके लिये है जो मस्जिद में नमाज़ पढ़ने के लिये ना गया हो बल्कि दर्स या ज़िक्र वग़ैरह के लिये गया हो तो पहले ये नमाज़ पढ़ ले। अगर फ़र्ज़ या इक़्तिदा के लिये मस्जिद गया तो यही तह्यतुल मस्जिद के क़ाइम मकाम है बशर्ते कि ल दाखिल होने के बाद ही पढ़े और अगर अर्सा के बाद पढ़ेगा तो तह्यतुल मस्जिद पढ़े।

बेहतर ये है कि बैठने से पहले तह्यतुल मस्जिद पढ़ ले और अगर बैठ गया तो साक़ित ना हुयी बल्कि अब पढ़ ले। हर रोज़ एक बार तह्यतुल मस्जिद काफ़ी है, हर बार ज़रूरी नहीं और अगर कोई शख्स बे वुज़ू मस्जिद गया या कोई और वजह है कि तह्यतुल मस्जिद नहीं पढ़ सकता तो चार बार ये पढ़े : سبحان اللہ والحمد للہ و لا الہ الا اللہ واللہ اکبر

तह्यतुल वुज़ू | Tahiyatul Wadu

तह्यतुल मस्जिद | Tahiyatul Masjid Kya Hai?

वुज़ू के बाद आज़ा (जिस्म के हिस्से जो भीग जाते हैं वुज़ू में, उन) के सूखने से पहले दो रकाअ़त नमाज़ मुस्तहब है। मुस्लिम शरीफ़ में है कि हुज़ूर ﷺ ने इरशाद फ़रमाया कि जो शख्स अच्छे से वुज़ू करे और फिर ज़ाहिर व बातिन के साथ मुतवज्जेह हो कर दो रकाअ़त पढ़े तो उस के लिये जन्नत वाजिब हो जाती है। गुस्ल के बाद भी दो रकाअ़त पढ़ना मुस्तहब है। वुज़ू के बाद फ़र्ज़ वग़ैरह पढ़े तो यही तह्यतुल वुज़ू के भी क़ायिम मक़ाम हो जायेंगे

Namaz E Ishraq Kya Hai?

तह्यतुल मस्जिद | Tahiyatul Masjid Kya Hai?

नमाज़े इशराक़ : तिर्मिज़ी में हज़रते अनस रदिअल्लाहु त'आला अन्हु रावी हैं कि हुज़ूर ﷺ ने इरशाद फ़रमाया कि जो फ़ज्र पढ़ कर ज़िक्र करता रहा यहाँ तक कि आफताब बुलंद हो गया फिर दो रकाअतें पढ़े तो उसे पूरे हज और उमरा का सवाब मिलेगा।

Namaz E Chasht Kya Hai?

तह्यतुल मस्जिद | Tahiyatul Masjid Kya Hai?

नमाज़े चाश्त : मुस्तहब है कम से कम दो और ज़्यादा से ज़्यादा 12 रकाअतें हैं। अफज़ल 12 हैं कि हदीस में है जिसने चाश्त की 12 रकाअतें पढ़ी तो अल्लाह त'आला उसके लिये जन्नत में सोने का महल बनायेगा। सहीह मुस्लिम में है कि आदमी के लिये उसके हर जोड़ का बदला है (और 360 जोड़ है), हर तस्बीह सदक़ा है और हर हम्द सदक़ा है और ला इलाहा इल्लल्लाह कहना सदक़ा है और अल्लाहु अकबर कहना सदक़ा है और अच्छी बात का हुक्म करना सदक़ा है और बुरी बात से मना करना सदक़ा है और इन सब की तरफ़ से दो रकाअतें चाश्त की किफायत करती हैं।

तिर्मिज़ी में है कि अल्लाह त'आआ फ़रमाता है कि ए इब्ने आदम! शुरु दिन में मेरे लिये चार रकाअतें पढ़ ले, आखिर दिन तक तेरी किफ़ायत करूँगा। तबरानी में हज़रते अबू दरदा से है कि हुज़ूर ﷺ ने इरशाद फ़रमाया कि जिस ने चाश्त की दो रकाअ़तें अदा की गाफिलीन में नहीं लिखा जायेगा और जो चार पढ़े आबिदीन में लिखा जायेगा और जो 6 पढ़े उस दिन उसकी किफायत की गयी और जो 8 पढ़े अल्लाह त'आला उसे क़ानितीन में लिखेगा और जो 12 पढ़े। अल्लाह त'आला उस के लिये जन्नत में एक महल बनायेगा और कोई दिन व रात नहीं जिस में अल्लाह त'आला बन्दों पर अहसान व सदक़ा ना करे और उस बन्दे से बढ़ कर किसी पर अहसान ना किया जिसे अपना ज़िक्र इल्हाम किया।

तिर्मिज़ी और इब्ने माज़ा में हज़रते अबू हुरैरा से रावी, हुज़ूर ﷺ ने इरशाद फ़रमाया कि जो चाश्त की दो रकाअ़तों पर मुहाफिज़त करे उस के गुनाह बख्स दिये जायेंगे अगर्चे समुंदर के झाग के बराबर हो।

चाश्त का वक़्त आफताब बुलंद होने से ज़वाल यानी निस्फुन्नहारे शरई तक है (शरई आधा दिन) और बेहतर ये है कि चौथाई दिन चढ़े तो पढ़े।