नमाज़ के फराइज़ का बयान | Namaz Ke Faraiz

नमाज़ के फराइज़ का बयान | Namaz Ke Faraiz
Namaz ke 7 faraiz

नमाज़ में 7 फ़राइज़ हैं, इन में से एक भी अगर अदा ना हुआ तो नमाज़ नहीं होगी।

1: पहला फर्ज़ तकबीरे तहरीमा

Namaz ka pehla faraiz

ये आप ने शराइत में भी देखा होगा और इसे फराइज़ में भी शुमार किया गया है। इस का नमाज़ के अफ़आल के साथ बहुत इत्तिसाल (Strong Connection) है इसी वजह से ये शर्त भी है और फर्ज़ भी।

जिन नमाज़ों में क़ियाम (खड़े होना) फर्ज़ है उन नमाज़ों में तकबीरे तहरीमा के लिये भी क़ियाम फर्ज़ है यानी बैठ कर नहीं कह सकते। अगर किसी ने बैठ कर अल्लाहु अकबर कहा और खड़ा हो गया तो नमाज़ शुरू ही ना हुयी।

इमाम को रुकूअ़ में पाया और तकबीरे तहरीमा कहता हुआ रुकूअ़ में गया यानी तकबीर उस वक़्त खत्म की कि हाथ बढ़ाये तो घुटनों तक पहुँच जाये तो नमाज़ ना हुई। नफ्ल नमाज़ के लिये तकबीरे तहरीमा रुकूअ़ में कही तो नमाज़ नहीं होगी और अगर बैठ कर कहता तो हो जाती।

मुक़्तदी ने लफ्ज़े अल्लाह इमाम के साथ कहा और अकबर को इमाम से पहले खत्म कर लिया तो नमाज़ ना हुयी।

अगर इमाम की तकबीर का हाल मालूम नहीं और पता नहीं कि इमाम से पहले तकबीर कही या बाद में तो अगर गालिब गुमान ये हो कि इमाम से पहले कही तो नमाज़ ना हुयी और अगर ये हो कि बाद में कही तो हो गयी और अगर किसी तरफ़ गालिब गुमान ना हो तो एह्तियात ये है कि क़तअ़ (निय्यत तोड़ दे) और फिर से तकबीरे तहरीमा कह कर हाथ बांधे।

जो शख्स तकबीर ना कह सकता हो मस्लन गूँगा हो या किसी और वजह से ज़ुबान बन्द हो तो उस पर तलफ्फ़ुज़ वाजिब नहीं बल्कि दिल में कह लेना काफ़ी है।

अल्लाहु अकबर की जगह कोई और लफ्ज़ ऐसा इस्तिमाल किया जो खालिस ताज़ीमे इलाही के लिये है तो भी नमाज़ शुरू हो जायेगी पर ऐसा करना मकरूहे तहरीमी है। यानी सुब्हान अल्लाह, अल्हम्दु लिल्लाह कह कर भी नमाज़ शुरू करे तो हो जायेगी पर ये तब्दीली मकरूहे तहरीमी है।

अगर सिर्फ अल्लाह, या अल्लाह कह कर नमाज़ शुरू की तो नमाज़ शुरू हो जायेगी। अल्लाहु अकबर का तलफ्फुज़ बिगाड़ कर पढ़े तो नमाज़ ना होगी और अगर उस का फ़ासिद माना जानते हुये क़स्दन पढ़े तो काफ़िर है। पहली रकअ़त में रुकूअ़ मिल जाये तो तकबीरे ऊला की फज़ीलत मिल जाती है

2: नमाज़ का दूसरा फर्ज़ है क़ियाम

नमाज़ का दूसरा फर्ज़ है क़ियाम

क़ियाम यानी खड़ा होना और कम से कम क़ियाम ये है कि हाथ घुटनों तक पहुँचाये तो ना पहुँचे और ज़्यादा से ज़्यादा ये है कि बिल्कुल सीधा खड़ा हो।

क़ियाम इतनी देर तक है जितनी देर तक क़िरअत यानी जो क़िरअत फर्ज़ है उस के लिये क़ियाम फर्ज़ है जो क़िरअत वाजिब है उस के लिये क़ियाम वाजिब और जो क़िरअत सुन्नत है उस के लिये क़ियाम सुन्नत।

ये हुक्म पहली रकअ़त के इलावा के लिये है पहली रकअ़त में फर्ज़ क़ियाम में तकबीरे तहरीमा भी दाखिल है और सुन्नत में सना, तअव्वुज़, तस्मिया (बिस्मिल्लाह) सब दाखिल हैं।

इस के फर्ज़, वाजिब और सुन्नत होने का ये मतलब है कि तर्क होने पर इसी के मुताबिक़ हुक्म बयान किया जायेगा वरना जितनी देर तक क़ियाम किया, जो कुछ पढ़ा सब फर्ज़ ही है और फर्ज़ का सवाब मिलेगा।

फर्ज़, वित्र, ईदैन और सुन्नते फ़ज्र में क़ियाम फ़र्ज़ है तो अगर कोई बिला उज़रे सहीह इसे बैठ कर पढ़ेगा तो नमाज़ ना होगी।

एक पाऊँ पर खड़े होना यानी दूसरे को ज़मीन से उठा लेना मकरूहे तहरीमी है और अगर उज़्र की वजह से ऐसा किया तो हर्ज नहीं।

अगर क़ियाम कर सकता है पर सजदा नहीं कर सकता तो बेहतर है कि बैठ कर इशारे से नमाज़ पढ़े और खड़े हो कर भी पढ़ सकता है।

जो शख्स सजदा तो कर सकता है पर सजदा करने की वजह से ज़ख्म बहता है तो वो बैठ कर इशारे से नमाज़ पढ़े और खड़ा हो कर भी इशारे से पढ़ सकता है।

जिस शख्स को खड़े होने से क़तरा आता है या ज़ख्म बहता है और बैठ कर नहीं तो उस पर फर्ज़ है कि बैठ कर पढ़े, अगर किसी और तरीक़े से रोक ना सकता हो।

अगर तन्हा इतना कमज़ोर है कि मस्जिद चल कर जाने पर थक जायेगा और वहाँ खड़े हो कर नमाज़ ना पढ़ सकेगा और घर में खड़े हो कर पढ़ सकता है तो घर में पढ़े।

खड़े होने से महज़ कुछ तकलीफ़ होना उज़्र नहीं है बल्कि क़ियाम उस वक़्त साक़ित होगा यानी माफ़ होगा जब खड़ा ना हो सके या सजदा ना कर सके या खड़े होने या सजदा करने में ज़ख्म बहता है या खड़े होने में क़तरा आता है।

अगर खड़ा हो सकता है पर पता है कि उस से बीमारी बढ़ सकती है तो बैठ कर पढ़े। अगर दीवार या खादिम या असा के सहारे टेक लगा कर खड़ा हो सकता है तो फर्ज़ है कि खड़ा हो कर पढ़े।

अगर कुछ देर भी खड़ा हो सकता है, फक़त इतना कि अल्लाहु अकबर कह सके तो फर्ज़ है कि खड़े हो कर कहे फिर बैठ जाये।

आज कल देखा जाता है कि ज़रा सा बुखार आया या हल्की सी तबियत खराब हुयी तो बैठ कर नमाज़ पढ़ना शुरू कर देते हैं और वही लोग कई मिनिटों तक इधर उधर खड़े हो कर बातें कर लिया करते हैं, उनको चाहिये कि मसाइल को सीखें और जितनी नमाज़ें क़ियाम पर क़ादिर होने के बावजूद बैठ कर पढ़ी हैं सब का इआदा करें।

अगर कोई ऐसे खड़ा ना हो सकता था और असा, खादिम या दीवार के सहारे खड़ा हो सकता था तो उसने भी जो नमाज़ें बैठ कर पढ़ी हैं सब का इआदा करे। अल्लाह त'आला तौफ़ीक़ अ़ता फरमाये।

कश्ती पर सवार है और वो चल रही है तो उस पर बैठ कर नमाज़ पढ़ सकता है जब कि चक्कर आने का गालिब गुमान हो और किनारे पर उतर ना सकता हो।

3: नमाज़ का तीसरा फर्ज़ है क़िरअत

नमाज़ का तीसरा फर्ज़ है क़िरअत

क़िरअत इस का नाम है कि तमाम हुरूफ़ मखारिज से अदा किये जायें। हुरूफ में एक दूसरे से फर्क़ ज़ाहिर हो जाना चाहिये। अगर आहिस्ता पढ़े तो ये ज़रूरी है कि खुद से सुने।

अगर इतनी धीमी आवाज़ से पढ़े कि खुद को सुनाई ना दे और कोई चीज़ माने भी ना हो मस्लन शोर ना हो रहा हो या किसी चीज़ की तेज़ आवाज़ की वजह से सुनायी ना दे रहा हो तो नमाज़ नहीं होगी।

ऊँचा सुनने का मर्ज़ है तो इतनी आवाज़ से पढ़ना ज़रूरी नहीं कि खुद सुन सके बल्कि इतनी आवाज़ से कि अगर ये मर्ज़ ना होता तो खुद सुन लेता।

सिर्फ नमाज़ की क़िरअत ही नहीं बल्कि जहाँ भी शरीअ़त में कुछ कहने या बोलने का हुक्म है इतनी आवाज़ में कि खुद सुन सके जैसे तलाक़ देना, जानवर ज़िबह करते वक़्त या गुलाम आज़ाद करने में।

फर्ज़ की दो रकअ़तों में एक आयत का पढ़ना फर्ज़ है यानी इतनी क़िरअत के बिना नमाज़ नहीं होगी और वित्र व नवाफ़िल की हर रकअ़त में इमाम व मुन्फ़रिद पर फर्ज़ है।

मुक़्तदी को किसी नमाज़ में आयत पढ़ने की इजाज़त नहीं। ना फ़ातिहा ना कोई और आयत। चाहे इमाम आहिस्ता पढ़े या बुलंद आवाज़ से पढ़ने वाली नमाज़ हो, मुक़्तदी के लिये क़िरअत जाइज़ नहीं।

इमाम की क़िरअत ही मुक़्तदी के लिये काफ़ी है। फर्ज़ नमाज़ की किसी रकअ़त में क़िरअत ना की या फक़त एक में की तो नमाज़ फ़ासिद हो गयी। छोटी आयत जिस में दो या दो से ज़्यादा कलिमात हों, उसे पढ़ लेने से फ़र्ज़ अदा हो जायेगा।

अगर एक हर्फ़ वाली आयत पढ़ी मस्लन नून, क़ाफ़ कि बाज़ क़िरअतों में इन को आयत माना है तो फ़र्ज़ अदा ना होगा अगर्चे इस की तकरार करे। अगर एक कलिमे वाली आयत हो तो भी बचना चाहिये। सूरत के शुरू में बिस्मिल्लाह एक मुकम्मल आयत है पर सिर्फ इस के पढ़ने से फ़र्ज़ अदा ना होगा।

4: चौथा फर्ज़ है रुकूअ़

चौथा फर्ज़ है रुकूअ़

ये तीन फराइज़ हुये, अब नमाज़ का चौथा फर्ज़ है रुकूअ़। नमाज़ का चौथा फर्ज़ है रुकूअ़ और कम से कम रुकूअ़ का दर्जा ये है कि झुकने के बाद हाथ बढ़ाये तो घुटनों तक पहुँच जाये और पूरा रुकूअ़ ये है कि पीठ को सीधा बिछा दे। जो कुबड़ा हो तो रुकूअ़ के लिये सर से इशारा करे।

हज़रते हुज़ैफा रदिअल्लाहु त'आला अ़न्हु ने एक शख्स को देखा कि रुकूअ़ सहीह से नहीं कर रहा है तो फ़रमाया कि तुम ने नमाज़ नहीं पढ़ी और अगर इसी तरह नमाज़ पढ़ते हुये मर गये तो हुज़ूर ﷺ की मिल्लत पर नहीं मरोगे। (सहीह बुखारी)

अबू दाऊद शरीफ़ की रिवायत में इतना इज़ाफ़ा है कि आप ने पूछा तुम कितने साल से नमाज़ पढ़ रहे हो तो उस ने कहा कि 40 साल से तो आप ने इरशाद फ़रमाया कि तुम ने 40 साल से कोई नमाज़ नहीं पढ़ी।

हुज़ूरﷺ ने इरशाद फ़रमाया कि सबसे बदतर चोर वो है जो नमाज़ में चोरी करता है तो सहाबा ने अ़र्ज़ की कि नमाज़ में चोरी? आपﷺ ने इरशाद फ़रमाया कि हाँ! वो जो रुकूअ़ और सुजूद पूरे नहीं करता।

5: नमाज़ का पाँचवा फर्ज़ है यानी सजदा

नमाज़ का पाँचवा फर्ज़ है यानी सजदा

हदीस में है कि सजदे की हालत में बन्दा अल्लाह त'आला के सबसे क़रीब होता है। पेशानी का ज़मीन पर जमना सजदे की हक़ीक़त है और पैर की एक उंगली का पेट लगना शर्त है तो अगर किसी ने इस तरह सजदा किया कि दोनों पाऊँ ज़मीन से उठे रहे तो सजदा नहीं होगा।

पैर उठना तो दूर अगर सिर्फ उंगली की नोक लगी रही तो भी सजदा नहीं होगा, उंगली के पेट को जमाना ज़रूरी है। अगर किसी उज़्र के सबब पेशानी को ज़मीन पर नहीं लगा सकता तो सिर्फ नाक से सजदा करे और सिर्फ नाक की नोक को लगाने का नाम सजदा नहीं बल्कि नाक की हड्डी तक उसे जमाना ज़रूरी है।

रुख्सार या थुडी को ज़मीन पर लगाने से सजदा ना होगा, चाहे उज़्र हो या उज़्र ना हो अगर उज़्र है तो इशारे से पढ़ने का हुक्म है। हर रकअ़त में दो बार सजदा करना फ़र्ज़ है।

किसी नर्म चीज़ पर अगर सजदा किया मस्लन घांस, क़ालीन वग़ैरह तो अगर पेशानी जम गयी यानी इतनी दब गयी कि अब मज़ीद दबाने से नहीं दबेगी तो सजदा हो गया वरना नहीं।

मोटे गद्दे और स्प्रिंग वाले गद्दों पर पेशानी नहीं जमती लिहाज़ा इन पर नमाज़ ना होगी। ट्रेन में और फिर बाज़ गाड़ियों में ऐसे गद्दे लगे होते हैं कि अगर उन पर सजदा किया जाये तो पेशानी नहीं जमती, ऐसे में उतर कर नमाज़ पढ़ना ज़रूरी है।

ज्वार, बाजरा वग़ैरह छोटे दानों पर पेशानी ना जमती हो तो सजदा ना होगा और अगर बोरी में कस कर भरी हुयी हो कि पेशानी जम जाये तो हो जायेगा। अगर किसी उज़्र मस्लन बहुत ज़्यादा भीड़ की वजह से अपनी रान पर सजदा किया तो जाइज़ है और बिला उज़्र बातिल है। घुटनों पर किसी तरह सजदा नहीं हो सकता चाहे उज़्र हो या ना हो।

भीड़ की वजह से किसी की पीठ पर सजदा किया और वो इस नमाज़ में दाखिल है तो जाइज़ है वरना नाजाइज़ ख्वाह वो नमाज़ में ना हो या नमाज़ में तो हो पर अलग नमाज़ पढ़ता हो। इमामे के पेच पर सजदा किया और माथा खूब जम गया तो सजदा हो गया।

अगर माथा ना जमा सिर्फ छू गया कि दबाने से और दबेगा तो सजदा ना हुआ। ऐसी जगह सजदा किया कि वो जगह क़दम की निस्बत 12 उंगल से ज़्यादा ऊँची है तो सजदा नहीं होगा। किसी छोटे पत्थर पर सजदा किया और पेशानी का ज़्यादा हिस्सा पत्थर पर लग गया तो हो गया।

6: नमाज़ का छटा फर्ज़ है क़ादा -ए- आखिरा

नमाज़ का छटा फर्ज़ है क़ादा -ए- आखिरा

यानी आखिरी रकअ़त में बैठना और इतनी देर तक बैठना फर्ज़ है कि पूरी अत्तहिय्यात पढ़ ली जाये। कोई चार रकअ़त पढ़ने के बाद बैठा फ़िर ये गुमान आया कि तीन ही हुई हैं और खड़ा हो गया फिर याद आया कि चार हो चुकी थी और बैठ गया फिर सलाम फेर दिया तो अगर दोनों बार का बैठना मिला कर बक़द्रे तशह्हुद हो गया तो फर्ज़ अदा हो गया वरना नहीं।

पूरा क़ादा सोते हुये गुज़र गया तो जागने के बाद तशह्हुद जितना बैठना फर्ज़ है यानी जितनी देर में अत्तहिय्यात पढ़ सके इतना बैठना फर्ज़ है वरना नमाज़ नहीं होगी। इसी तरह क़ियाम में अव्वल से आखिर तक सोता ही रहा तो बेदारी के बाद इआदा फ़र्ज़ है वरना नमाज़ ना होगी और सजदा -ए- सहव भी करे, लोग इस मसअले से गाफ़िल हैं।

खुसूसन तरावीह में खुसूसन गर्मियों में। पूरी रकअ़त सोते में पढ़ ली तो नमाज़ फ़ासिद हो गई। चार रकअ़त वाली फ़र्ज़ नमाज़ में आखिर में ना बैठा और पाँचवी के लिये खड़ा हो गया तो जब तक पाँचवी का सजदा ना किया हो बैठ जाये और अगर पाँचवी का सजदा कर लिया या फ़ज्र की दूसरी में ना बैठा और तीसरी का सजदा कर लिया या मगरिब की तीसरी में ना बैठा और चौथी का सजदा कर लिया तो फर्ज़ बातिल हो गये। ऐसे में मगरिब के इलावा और नमाज़ों में एक रकअ़त मिला कर पूरी कर ले।

7: नमाज़ का सातवाँ फर्ज़ है खुरूजे बि-सुन्निही

नमाज़ का सातवाँ फर्ज़ है खुरूजे बि-सुन्निही

यानी रकअ़त पूरी करने के बाद क़ादा -ए- आखिरा में कोई ऐसा काम जान बूझ कर करना जिस से नमाज़ से बाहर आ जायें। इस का आसान माना है अपने इरादे से नमाज़ से बाहर आने के लिये कोई ऐसा अ़मल करना जो नमाज़ के मनफ़ी हो मस्लन सलाम कलाम।

इसके लिये सलाम फेरने का तरीक़ा बयान किया गया है और सलाम के इलावा कोई तरीक़ा अपनाया तो नमाज़ हो जायेगी पर वाजिबुल इआदा हो जायेगी यानी फर्ज़ अदा हो जायेगा और बिला क़स्द कोई अ़मल ऐसा किया तो नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी।

पहले क़ियाम फिर रुकूअ़ फिर सजदे फिर क़ादा -ए- आखिरा ये तरतीब फर्ज़ है लिहाज़ा अगर किसी ने क़ियाम से पहले रुकूअ़ कर लिया और फिर क़ियाम किया तो रुकूअ़ जाता रहा अब क़ियाम के बाद फिर रुकूअ़ करेगा तो नमाज़ होगी वरना नहीं।

यूँ ही रुकूअ़ से पहले सजदा कर लिया फिर रुकूअ़ और सजदा किया तो नमाज़ हो जायेगी वरना नहीं। जो चीज़ें नमाज़ में फ़र्ज़ हैं उन में मुक़्तदी को इमाम की पैरवी करना फ़र्ज़ है। मस्लन इमाम से पहले अदा कर चुका या इमाम के बाद अदा ना किया तो नमाज़ ना होगी।

मुक़्तदी पर फ़र्ज़ है कि इमाम की नमाज़ को अपने ख्याल में सहीह तसव्वुर करता हो। अगर इमाम की नमाज़ को बातिल समझता है तो इस की नमाज़ ना होगी अगर्चे इमाम की नमाज़ सहीह हो। ये नमाज़ के फराइज़ को मुख्तसरन हमने बयान किया अब नमाज़ के वाजिबात बयान किये जायेंगे।

ये जो 7 फराइज़ बयान किये गये, इन में से अगर एक भी अदा ना हो तो नमाज़ होगी ही नहीं और अब जो वाजिबात हम बयान करेंगे उन में से अगर कोई रह जाये तो नमाज़ हो जाती है यानी फर्ज़ अदा हो जाता है पर नमाज़ में एक कमी रह जाती है यानी वो कामिल तौर पर अदा नहीं होती। इन वाजिबात में से अगर जान बूझकर कोई किसी एक वाजिब को छोड़ दे तो नमाज़ दोहराना वाजिब हो जाता है और अगर भूल कर वाजिबात को तर्क कर बैठे तो उसकी तलफ़ी के लिये आखिर में दो सजदे करने होते हैं जिसे सजदा -ए- सहव या भूल का सजदा कहते हैं।

इन वाजिबात में से कुछ ऐसे होते हैं कि अगर भूल कर भी छोड़े जायें तो सजदा -ए- सहव काफ़ी नहीं होता बल्कि नमाज़ सिरे से वाजिब हो जाती है।