नमाज़े जनाज़ा का बयान | Namaz E Janaza Ka Tarika


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नमाज़े जनाज़ा का बयान | Namaz E Janaza Ka Tarika

नमाज़े जनाज़ा का बयान | Namaz E Janaza Ka Tarika in Hindi

नमाज़े जनाज़ा फ़र्ज़े किफ़ाया है कि एक ने भी पढ़ ली तो सब ज़िम्मे से बरी हो गये वरना जिस जिस को खबर पहुँची थी और ना पढ़ी गुनाहगार हुआ। इसकी फ़र्ज़िय्यत का जो इंकार करे काफ़िर है। इसके लिये जमाअत शर्त नहीं, एक शख्स भी पढ़ ले फ़र्ज़ अदा हो गया।

नमाज़े जनाज़ा वाजिब होने के लिये वही शराइत हैं जो और नमाज़ों के लिये हैं यानी :

  • क़ादिर होना।
  • बालिग़ होना।
  • आकिल होना।
  • मुसलमान होना, एक बात इस में ज़्यादा है यानी उस की मौत की खबर होना।

नमाज़े जनाज़ा में दो तरह की शर्तें हैं,एक पढ़ने वाले के मुतल्लिक़ दूसरी मय्यित के मुतल्लिक़ पढ़ने वाले के लिये तो वही शर्तें हैं जो नमाज़ के लिये हैं यानी :

(1) पढ़ने वाले का नजासत से पाक होना और उस के कपड़े और जगह का पाक होना।

(2) सित्रे औरत।

(3) किब्ला को मुँह होना।

(4) निय्यत, इस में वक़्त शर्त नहीं और तकबीरे तहरीमा रुक्न है शर्त नहीं जैसा पहले ज़िक्र हुआ।

बाज़ लोग जूता पहने और बहुत लोग जूते पर खड़े हो कर नमाज़े जनाज़ा पढ़ते हैं। अगर जूता पहने पढ़ी तो जूता और उसके नीचे की ज़मीन दोनों का पाक होना ज़रूरी है, बा क़द्रे माने नजासत होगी तो उसकी नमाज़ ना होगी और जूते पर खड़े हो कर पढ़ी तो जूते का पाक होना ज़रूरी है।

जनाज़ा तैयार है जानता है कि वुज़ू या ग़ुस्ल करेगा तो नमाज़ हो जायेगी तो तयम्मुम कर के पढ़े, इसकी तफ़सील तयम्मुम के बाब में मज़कूर है।

इमाम ताहिर ना था तो नमाज़ फिर पढ़ें अगर्चे मुक़तदी ताहिर हों कि जब इमाम की ना हुयी किसी की ना हुयी और अगर इमाम ताहिर था और मुक़तदी बिला तहारत तो दोहरायी ना जाये कि अगर्चे मुक्तदियों की ना हुयी पर इमाम की तो हो गयी। यूँ ही अगर औरत ने नमाज़ पढ़ाई और मर्दों ने उस की इक़्तिदा की तो लौटायी ना जाये कि अगर्चे मर्दों की इक़्तिदा सहीह ना हुई मगर औरत की नमाज़ तो हो गयी, वही काफी है और नमाज़े जनाज़ा की तकरार जाइज़ नहीं।

नमाज़े जनाज़ा सवारी पर पढ़ी तो ना हुई, इमाम का बालिग़ होना शर्त है ख़्वाह इमाम मर्द हो या औरत, नाबालिग ने नमाज़ पढ़ाई तो ना हुयी।

नमाज़े जनाज़ा में मय्यित से ताल्लुक़ रखने वाली चंद शर्तें:

(1) मय्यित का मुसलमान होना: मय्यित से मुराद वो है जो ज़िन्दा पैदा हुआ फिर मर गया, तो अगर मुर्दा पैदा हुआ बल्कि अगर आधे से कम बाहर निकला उस वक़्त ज़िन्दा था और अक्सर बाहर निकलने से पेश्तर मर गया तो उसकी भी नमाज़े जनाज़ा ना पढ़ी जाये और तफ़सील बयान की जायेगी।

छोटे बच्चे के माँ बाप दोनों मुसलमान हों या कोई एक तो वो बच्चा मुसलमान है उसकी नमाज़ पढ़ी जाये और दोनों काफ़िर हैं तो नहीं। मुसलमान की नमाज़ पढ़ी जाये अगर्चे वो कैसा ही गुनाहगार व कबाइर का मुरतकिब हो मगर चंद किस्म के लोग हैं उनकी नमाज़ नहीं।

वो लोग जिनकी नमाज़े जनाज़ा नहीं पढ़ी जायेगी:

  • बागी जो इमामे बरहक़ पर नाहक़ खुरूज करे और उसी बगावत में मारा जाये।
  • डाकू कि डाके में मारा गया, ना उस को ग़ुस्ल दिया जाये और ना नमाज़ पढ़ी जाये मगर जबकि बादशाहे इस्लाम ने उन पर क़ाबू पाया और फिर क़त्ल किया तो ग़ुस्ल व नमाज़ है और अगर वो ना पकड़े गये या ऐसे ही मर गये तो भी नमाज़ व ग़ुस्ल है।
  • जो लोग नाहक़ पास्दारी से लड़ें बल्कि जो उनका तमाशा देख रहे थे और पत्थर आ कर लगा और मर गया तो उनकी भी नमाज़ नहीं, हॉं उनके अलग-अलग हो जाने के बाद मरे तो नमाज़ पढ़ी जायेगी।
  • जिस ने कई शख्स गला घोंट कर मार डाले।
  • शहर में रात को हथियार ले कर लूट मार करें वो भी डाकू हैं, इस हालत में मारे जायें तो उनकी भी नमाज़ ना पढ़ें।
  • जिसने अपने माँ बाप को मार डाला, उस की भी नमाज़ नहीं।
  • जो किसी का माल छीन रहा था और इस हालत में मारा गया, उसकी भी नमाज़ नहीं।

शर्त (2) : मय्यित के बदन व कफन का पाक होना।बदन पाक होने का ये मतलब है कि उसे ग़ुस्ल दिया गया हो या ग़ुस्ल ना मुम्किन होने की सूरत में उसे तयम्मुम करवाया गया हो और कफन पहनाने से पेश्तर उसके जिस्म से नजासत निकली तो धो डाली जाये और बाद में खारिज हुई तो धोने की हाजत नहीं और कफन पाक होने का या मतलब है कि पाक कफ़न पहनाया जाये और बाद में अगर नजासत खारिज हुयी और कफ़न आलूदा हुआ तो हर्ज नहीं।

बगैर गुस्ल नमाज़ पढ़ी गयी ना हुयी, उसे गुस्ल दे कर फिर पढ़ें और अगर क़ब्र में रख चुके मगर मिट्टी अभी नही डाली गयी तो क़ब्र से निकालें और गुस्ल दे कर नमाज़ पढ़ें और मिट्टी दे चुके तो अब नहीं निकाल सकते लिहाज़ा अब उसकी क़ब्र पे नमाज़ पढ़ें क्यूँकी पहले जो नमाज़ पढ़ी थी वो ना हुयी थी की बगैर गुस्ल के हुयी थी और अब चूँकि गुस्ल नामुमकिन है लिहाज़ा अब हो जायेगी।

शर्त (3) :जनाज़ा का वाहन मौजूद होना यानी कुल (पूरा जिस्म) या अक्सर या निस्फ़ मा सर (आधा जिस्म सर के साथ) मौजूद होना लिहाज़ा गायिब की नमाज़ नहीं हो सकती।

शर्त (4) :जनाज़ा ज़मीन पर रखा होना चाहिये या हाथ पर हो मगर क़रीब हो, अगर जानवर वगैरा पर लदा हुआ हो तो नमाज़ ना होगी।

शर्त (5) :जनाज़ा नमाज़ी के आगे क़िब्ला को होना चाहिये, अगर पीछे होगा तो नमाज़ ना होगी। अगर जनाज़ा उल्टा रखा यानी इमाम के दाहिने मय्यित का क़दम हो तो नमाज़ हो जायेगी मगर जान बूझ कर ऐसा किया तो गुनाहगार हुआ। अगर क़िब्ला के जानने में गलती हुयी यानी मय्यित को अपने ख्याल से क़िब्ला ही को रखा था मगर हक़ीक़तन क़िब्ला को नहीं तो मौज़ा -ए- तहर्री में अगर तहर्री (क़िब्ला का अंदाज़ा लगना) की तो नमाज़ हो गयी वरना नहीं।

शर्त (6) :मय्यित का वो हिस्सा जिस का छुपाना फर्ज़ है छुपा होना

शर्त (7) : मय्यित ईमान के महाज़ी हो यानी अगर एक मय्यित है तो उस का कोइ हिस्सा बदने इमाम के महाज़ी हो और एक से ज़्यादा मय्यित हो तो किसी एक का हिस्सा बदने इमाम के महाज़ी होना काफी है।

नमाज़े जनाज़ा में 2 रुक्न हैं :

(1) चार बार अल्लाहु अकबर कहना

(2) क़ियाम (खड़ा होना)

यानी बगैर उज्र बैठ कर या सवारी पर नमाज़े जनाज़ा पढ़ी, ना हुयी और अगर वली या इमाम बीमार था उसने बैठ कर पढ़ाई और मुक़्तदियों ने खड़े हो कर पढ़ी हो गयी।

नमाज़े जनाज़ा में तीन चीजें सुन्नते मुअक्किदा हैं :

(1) अल्लाह त'आला की हम्दो सना।

(2) नबी सल्लल्लाहु त'आला अलैहि वसल्लम पर दुरूद।

(3) मय्यित के लिये दुआ।

नमाज़े जनाज़ा का तरीका ये है कि कान तक हाथ उठाकर अल्लाहु अकबर कहता हुआ हाथ नीचे लाये और नाफ़ के नीचे हस्बे दस्तूर बाँध ले और सना पढ़े यानी: سُبْحٰنَکَ اللّٰھُمَّ وَبِحَمْدِکَ وَتَبَارَکَ اسْمُکَ وَتَعَالٰی جَدُّکَ وَجَلَّ ثَنَاؤُکَ وَلَا اِلٰـہَ غَیْرُکَ

फिर बग़ैर हाथ उठाये अल्लाहु अकबर कहे और दुरूद शरीफ़ पढ़े, बेहतर वो दुरूद है जो नमाज़ में पढ़ा जाता है और कोई दूसरा पढ़ा जब भी हर्ज नहीं फिर अल्लाहु अकबर कहकर अपने और मय्यित और तमाम मुमिनीन व मूमिनात के लिये दुआ करे और बेहतर ये कि वो दुआ पढ़े जो अहादीस में वारिद हैं और मशहूर दुआयें अगर अच्छी तरह ना पढ़ सके तो जो दुआ चाहे पढ़े, मगर वो दुआ ऐसी हो कि उमूरे आख़िरत से मुताल्लिक़ हो।

बाज़ मशहूर दुआयें ये हैं:

ब्रेकेट में (ھا) मुअन्नस के लिये

(1) اَللّٰھُمَّ اغْفِرْلِحَیِّنَا وَمَیِّتِنَا وَشَاھِدِنَا وَغَائِبِنَا وَصَغِیْرِنَا وَکَبِیْرِنَا وَذَکَرِنَا وَاُنْثَانَا اَللّٰھُمَّ مَنْ اَحْیَیْتَہٗ مِنَّا فَاَحْیِہٖ عَلَی الْاِسْلَامِ وَمَنْ تَوَفَّیْتَہٗ مِنَّا فَتَوَفَّہٗ عَلَی الْاِیْمَانِ اَللّٰھُمَّ لَا تَحْرِمْنَا اَجْرَہٗ (ھا) وَلَا تَفْتِنَّا بَعْدَہٗ (ھا)

(2) اَللّٰھُمَّ اغْفِرْلَہٗ (لَھَا) وَارْحَمْہٗ (ھَا) وَعَافِہٖ (ھا) وَاعْفُ عَنْہُ (ھَا) وَاَکْرِمْ نُزُلَہٗ (ھَا) وَوَسِّعْ مُدْخَلَہٗ (ھَا) وَاغْسِلْہُ (ھَا) بِالْمَاءِ وَالثَّلْجِ وَالْبَرَدِوَنَقِّہٖ (ھَا) مِنَ الْخَطَایَا کَمَا نَقَّیْتَ الثَّوْبَ الْاَبْیَضَ مِنَ الدَّنَسِ وَاَبْدِلْہُ (ھَا) دَارًا خَیْرًا مِّنْ دَارِہٖ (ھَا) وَاَھْلاً خَیْرًا مِّنْ اَھْلِہٖ (ھَا) وَزَوْجًا خَیْرًا مِّنْ زَوْجِہٖ وَاَدْخِلْہُ (ھَا) اَلْجَنَّۃَ وَاَعِذْہٗ (ھَا) مِنْ عَذَابِ الْقَبْرِ وَمِنْ فِتْنَۃِ الْقَبْرِ وَعَذَابِ النَّارِ ۔

(3) اَللّٰھُمَّ عَبْدُکَ (اَمَتَکَ) وَابْنُ (بِنْتُ) اَمَتِکَ یَشْھَدُ (تَشْھَدُ) اَنْ لَّا اِلٰہَ اِلَّا اَنتَ َ وَحْدَکَ لَا شَرِیْکَ لَکَ وَ یَشْھَدُ (تَشْھَدُ) اَنَّ مُحَمَّدًا عَبْدُکَ وَرَسُوْلُکَ اَصْبَحَ فَقِیْرًا (اَصْبَحَتْ فَقِیْرَۃً ) اِلٰی رَحْمَتِکَ وَاَصْبَحْتَ غَنِیًّا عَنْ عَذَابِہٖ (ھَا) تَخَلّٰی (تَخَلَّتْ) مِنَ الدُّنْیَا وَاَھْلِھَا اِنْ کَانَ (کَانَتْ) زَاکِیًا (زَکِیَۃً) فَزِکِّہٖ (ھَا) وَاِنْ کَانَ (کَانَتْ) مُخْطِئًا (مُخْطِئَۃً) فَاغْفِرْلَـہٗ (ھَا) اَللّٰھُمَّ لَا تَحْرِمْنَا اَجْرَہٗ (ھَا) وَلَا تُضِلَّنَا بَعْدَہٗ (ھَا)

(4) اَللّٰھُمَّ ھَذَا ( ھٰذِہٖ ) عَبْدُکَ ابْنُ ( اَمَتُکَ بِنْتُ ) عَبْدِکَ ابْنُ ( بِنْتُ ) اَمَتِکَ مَاضٍ فِیْہِ ( ھَا ) حُکْمُکَ خَلَقْتَہٗ ( ھَا ) وَلَمْ یَکُ ( تَکُ ھِیَ ) شَیْئًا مَذْکُوْرًا ط نَزَلَ ( نَزَلَتْ ) بِکَ وَاَنْتَ خَیْرُ مَنْزُولٍ بَہٖ اَللّٰہُمَّ لَقِّنْہُ ( ھَا ) حُجَّتَہٗ ( ھَا ) وَاَلْحِقْہُ ( ھا ) بِنَبِیِّہٖ ( ھَا ) مُحَمَّدٍ صَلَّی اللہُ تَعَالٰی عَلَیْہِ وَسَلَّمَط وَثَبِّتْہُ ( ھَا ) بِالْقَوْلِ الثَّابِتِ فاِنَّہٗ ( ھَا ) اِفْتَقَرَ ( اِفْتَقَرَتْ ) اِلَیْکَ وَاسْتَغْنَیْتَ عَنْہُ ( ھَا ) کَانَ ( کَانَتْ ) یَشْھَدُ ( تَشْھَدُ ) اَنْ لَّا اِلٰـہَ اِلَّا اللہ فَاغْفِرْلَہٗ ( لَھَا ) وَارْحَمْہُ ( ھَا ) وَلَا تَحْرِمْنَا اَجْرَہٗ ( ھَا ) وَلَا تَفْتِنَّا بَعْدَہٗ ( ھَا ) ط اَللّٰھُمَّ اِنْ کَانَ ( کَانَتْ ) زَاکِیَّا ( زَاکِیَّۃً ) فَزَکِّہٖ ( ھَا ) وَاِنْ کَانَ ( کَانَتْ ) خَاطِئًا ( خَاطِئَۃً ) فَاغْفِرْ لَـہٗ ( ھَا )

(5) اَللّٰھُمَّ عَبْدُکَ ( اَمَتُکَ ) وَابْنُ ( بِنْتُ ) اَمَتِکَ اِحْتَاجَ ( جَتْ ) اِلٰی رَحْمَتِکَ وَاَنْتَ غَنِیٌّ عَنْ عَذَابِہٖ ( ھَا ) اِنْ کَانَ ( کانَتْ ) مُحْسِنًا ( مُحْسِنَۃً ) فَزِدْ فِیْ اِحْسَانِہٖ ( ھَا ) وَاِنْ کَانَ ( کَانَتْ ) مُسِیْئًا ( مُسِیْئَۃً ) فَتَجَاوَزْ عَنْہُ ( ھَا ) ۔ (2)

(6) اَللّٰھُمَّ عَبْدُکَ ( اَمَتُکَ ) وَابْنُ ( بِنْتُ ) عَبْدِکَ کَانَ ( کَانَتْ ) یَشْھَدُ ( تَشْھَدُ ) اَنْ لَّا اِلٰـہَ اِلَّا اللہ وَاَنَّ مُحَمَّدًا عَبْدُکَ وَرَسُوْلُکَ صَلَّی اللہ تَعَالٰی عَلَیْہِ وَسَلَّمَ ط وَاَنْتَ اَعْلَمُ بہٖ ( ھَا ) مِنَّا اِنْ کَانَ ( کَانَتْ ) مُحْسِنًا ( مُحْسِنَۃً ) فَزِدْ فِیْ اِحْسَانِہٖ ( ھَا ) وَاِنْ کَانَ ( کَانَتْ ) مُسِیْئًا ( مُسِیْئَۃً ) فَاغْفِرْ لَـہٗ ( ھَا ) وَلَا تَحْرِمْنَآ اَجْرَہٗ ( ھَا ) وَلَا تَفْتِنَّا بَعْدَہٗ ( ھَا )۔(3)

(7) اَصْبَحَ ( اَصْبَحَتْ ) عَبْدُکَ ( اَمَتُکَ ) ھَذٰا ( ہٰذِہٖ ) قَدْ تَخَلّٰی ( تَخَلَّتْ ) عَنِ الدُّنْیَا وَتَرَکَھَا ( تَرَکَتْھَا ) لِاَھْلِھَا وَافْتَقَرَ ( افْتَقَرَتْ ) اِلَیْکَ وَاسْتَغْنَیْتَ عَنْہُ ( ھَا ) وَقَد کَانَ ( کَانَتْ ) یَشْھَدُ ( تَشْھَدُ ) اَنْ لَّا اِلٰـہَ اِلَّا اللہ وَاَنَّ مُحَمَّدًا عَبْدُکَ وَرَسُوْلُکَ صَلَّی اللہ تَعَالٰی عَلَیْہِ وَسَلَّمَ ط اَللّٰھُمَّ اغْفِرْلَہٗ ( ھَا ) وَتَجَاوَزْ عَنْہُ ( ھَا ) وَاَلْحِقْہُ ( ھَا ) بِنَبِیِّہٖ ( ھَا ) صَلَّی اللہ تَعَالٰی عَلَیْہِ وَسَلَّمْ ۔ (1)

(8) اَللّٰھُمَّ اَنْتَ رَبُّھَا وَاَنْتَ خَلَقْتَھَا وَاَنْتَ ھَدَیْتَھَا لِلْاِسْلَامِ ط وَاَنْتَ قَبَضْتَ رُوْحَھَا وَاَنْتَ اَعْلَمُ بِسِرِّھَا وَعَلَا نِیَّتِھَا جِئْنَا شُفَعَاءَ فَاغْفِرْلَھَا ۔ (2)

(9) اَللّٰھُمَّ اغْفِرْ لِاِخْوَانِنَا وَاَخَوَاتِنَا وَاَصْلِحْ ذَاتَ بَیْنِنَا وَاَلِّفْ بَیْنَ قُلُوْبِنَا اَللّٰھُمَّ ھٰذَا ( ھٰذِہٖ ) عَبْدُکَ ( اَمَتُکَ ) فُـلَانُ بْنُ فُـلَانٍ وَلَا نَعْلَمُ اِلَّا خَیْرًا وَّاَنْتَ اَعْلَمُ بِہٖ ( بِھَا ) مِنَّا فَاغْفِرْلَنَا وَلَہٗ ( لَھَا ) ۔ (3)

(10) اَللّٰھُمَّ اِنَّ فُـلَانَ بْنَ فُـلَانٍ ( فُـلَانَہُ بِنْتَ فُـلَانٍ ) فِیْ ذِمَّتِکَ وَحَبْلِ جَوَارِکَ فَقِہٖ ( ھَا ) مِنْ فِتْنَۃِ الْقَبْرِ وَعَذَابِ النَّارِ وَاَنْتَ اَھلُ الْوَفَاءِ وَالْحَمْدِ ط اَللّٰھُمَّ اغْفِرْلَہٗ ( ھَا ) وَارْحَمْہٗ ( ھَا ) اِنَّکَ اَنْتَ الْغَفُوْرُ الرَّحِیْمُ ط

ब्रेकेट में (ھا) मोअन्नस के लिये :

(11) اَللّٰھُمَّ اَجِرْھَا مِنَ الشَّیْطَانِ وَعَذَابِ الْقَبْرِ ط اَللّٰھُمَّ جَافِ الْاَرْضَ عَنْ جَنْبَیْھَا وَصَعِّدْ رُوْحَھَا وَلَقِّھَا مِنْکَ رِضْوَانًا ط ۔

(12) اَللّٰھُمَّ اِنَّکَ خَلَقْتَنَا وَنَحْنُ عِبَادُکَ ط اَنْتَ رَبُّنَا وَ اِلَیْکَ مَعَادُنَا ۔ (3)

(13) اَللّٰھُمَّ اغْفِرْ لِاَوَّلِنَا واٰخِرِنَا وَحَیِّنَا وَمَیِّتِنَا وَذَکَرِنَا وَاُنْثَانَا وَصَغِیْرِنَا وَکَبِیْرِنَا وَشَاھِدِنَا وَغَائِبِنَا اَللّٰھُمَّ لَا تَحْرِمْنَا اَجْرَہٗ ( ھَا ) وَلَا تَفْتِنَّا بَعْدَہٗ ( ھَا ) ۔ (4)

(14) اَللّٰھُمَّ یَا اَرْحَمَ الرَّاحِمِیْنَ یَا اَرْحَمَ الرَّاحِمِیْنَ یَا اَرْحَمَ الرَّاحِمِیْنَ یَا حَیُّ یَا قَیُّوْمُ یَا بَدِیْعَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ یَا ذَاالْجَلَالِ وَالْاِکْرَامِ اِنِّیْ اَسْئَالُکَ بِاَنِّیْ اَشْھَدُ اَنَّکَ اَنْتَ اللہ الْاَحَدُ الصَّمَدُ الَّذِی لَمْ یَلِدْ وَلَمْ یُوْلَدْ وَلَمْ یَکُنْ لَّہٗ کُفُوًا اَحَدٌ o اَللّٰھُمَّ اِنِّیْ اَسْئَلُکَ وَاَتَوَجَّہُ اِلَیْکَ بِنَبِیِّکَ مُحَمَّدٍ نَّبِیِّ الرَّحْمَۃِ ط صَلَّی اللہ تَعَالٰی عَلَیْہِ وَسَلَّمَ ط اَللّٰھُمَّ اِنَّ الْکَرِیْمَ اِذَا اَمَرَ بِالْسُّئَوالِ لَمْ یَرُدَّہٗ اَبَدًا وَّقَدْ اَمَرْتَنَا فَدَعَوْنَا وَاَذِنْتَ لَنَا فَشَفَعْنَا وَاَنْتَ اَکْرَمُ الْاَکْرَمِیْنَط فَشَفِّعْنَا فِیْہِ ( ھَا ) وَارْحَمْہُ ( ھَا ) فِیْ وَحْدَتِہٖ ( ھَا ) وَارْحَمْہُ ( ھَا ) فِیْ وَحْشَتِہٖ ( ھَا ) وَارْحَمْہُ ( ھَا ) فِیْ غُرْبَتِہٖ ( ھَا ) وَارْحَمْہُ ( ھَا ) فِیْ کُرْبَتِہٖ ( ھَا ) وَاعْظِمْ لَـہٗ ( لَھَا ) اَجْرَہٗ ( ھَا ) وَنَوِّرْ لَـہٗ ( ھَا ) قَبْرَہٗ ( ھاَ ) وَبَیِّضْ لَـہٗ ( لَھَا ) وَجْھَہٗ ( ھَا ) وَبَرِّدْلَـہٗ ( ھَا ) مَضْجَعَہٗ ( ھَا ) وَعَطِّرْلَـہٗ ( ھَا ) مَنْزِلَـہٗ ( ھَا ) وَاَکْرِمْ لَـہٗ ( ھَا ) نُزُلَہُ ( ھَا ) یَا خَیْرَ الْمُنْزِلِیْنَ ج وَ یَاخَیْرَ الْغَافِرِیْنَ وَ یَا خَیْرَ الرَّاحِمِیْنَج اٰمِیْنَ اٰمِیْنَ اٰمِیْنَ صَلِّ وَسَلِّمْ وَبَارِکْ عَلٰی سَیِّدِ الشَّافِعِیْنَ مُحَمَّدٍ وَّاٰلِـہٖ وَصَحْبِہٖ اَجْمَعِیْنَ ط وَالْحَمْدُ للہ رَبِّ الْعَالَمِیْنَ o (1)

फाइदा:नवी और दसवी दुआओ में अगर मय्यित के बाप का नाम मालूम ना हो तो उसकी जगह आदम अलैहिस्सलाम कहे कि वो सब आदमियो के बाप हैं और अगर खुद मय्यित का नाम भी मालूम ना हो तो नवी दुआ में ھٰذَا عَبْدُکَ یا ھٰذِہٖ اَمَتُکَ पर क़नाअत करें, फुलां बिन फुलां या बिन्त को छोड़ दे और दसवी में उसकी जगह عَبْدُکَ ھٰذَا या औरत हो तो اَمَتُکَ ھٰذِہٖ

फाइदा:मय्यित का फिस्क़ो फुज़ूर मालूम हो तो नवी दुआ में لَا نَعْلَمُ اِلَّا خَیْرًا की जगह قَدْ عَلِمْنَا مِنْہُ خَیْرًا कहे कि इस्लाम हर खैर से बहतर खैर है।

फाइदा:इन दुआओ में बाज़ मज़ामीन मुक़र्रर हैं और दुआ में तकरार मुस्तहसन, अगर सब दुआएँ याद हो और वक़्त में गुंजाईश हो तो सब का पढ़ना ऊला वरना जो चाहे पढ़े और इमाम जितनी देर में ये दुआएँ पढ़े अगर मुक़्तदी को याद ना हो तो पहली दुआ के बाद आमीन आमीन कहता रहे।

मय्यित मज्नून या नाबालिग हो तो तीसरी तक्बीर के बाद ये दुआ पढ़े:اَللّٰھُمَّ اجْعَلْہُ لَنَا فَرَطًا وَّاجْعَلْہُ لَنَا ذُخْرًا وَّاجْعَلْہُ لَنَا شَافِعًا وَّمُشَفَّعًا

और लड़की हो तो ये कहे: اجْعَلْھَا اور شَافِعَۃً وَّمُشَفَّعَۃً

मज्नून से मुराद मज्नून है की बालिग होने से पहले मज्नून हुआ की वो कभी मुकल्लफ़ ही ना हुआ और अगर जुनून आरज़ी है तो उसकी मग्फिरत की दुआ की जाये, जैसे औरो के लिये की जाती है की जुनून से पहले तो वो मुकल्लफ़ था और जुनून के पेश्तर के गुनाह जुनून से नही जायेंगे।

चौथी तक्बीर के बाद बगैर कोई दुआ पढ़े हाथ खोल कर सलाम फेर दे। सलाम में मय्यित और फिरिश्तो और हाज़िरीने नमाज़ की निय्यत करे उसी तरह जैसे और नमाज़ो के सलाम में निय्यत की जाती है यहाँ इतनी बात ज़्यादा है कि मय्यित की भी निय्यत करे।

तक्बीर व सलाम को इमाम जहर (बुलंद आवाज़) के साथ कहे बाक़ी तमाम दुआएँ आहिश्ता पढ़ी जायें सिर्फ़ पहली मरतबा अल्लाहु अकबर कहने के वक़्त हाथ उठाये जायेंं फिर हाथ उठाना नहीं। नमाज़े जनाज़ा में क़ुरआन बा निय्यते क़ुरआन या तशह्हूद पढ़ना मना है और बा निय्यते दुआ व सना अल्हम्द वग़ैरह आयाते दुआइया व सनाइया पढ़ना जाइज़ है।

बेहतर ये है कि नमाज़े जनाज़ा में तीन सफें करें कि हदीस में है : जिस की नमाज़ तीन सफ़ो ने पढ़ी उसकी मग्फिरत हो जायेगी। और अगर कुल सात ही लोग हो तो एक इमाम हो और तीन पहली सफ़ में और दो दूसरी सफ़ में और एक तीसरी सफ़ में। जनाज़ा में पिछ्ली सफ़ को तमाम सफ़ो पर फज़ीलत है।

नमाज़े जनाज़ा कौन पढ़ाये:

नमाज़े जनाज़ा में इमामत का हक़ बादशाहे इस्लाम को है फिर क़ाज़ी, फिर इमामे जुमुअह, फिर इमामे मुहल्ला, फिर वली को, इमामे मुहल्ला का वली पर तक़द्दुम इस्तिहबाब है और ये भी उस वक़्त के वली से अफ्ज़ल हो वरना वली बेहतर है।

वली से मुराद मय्यित के असाबा हैं (यानी बाप की तरफ़ से रिश्तेदार जिनका विरासत पे हक़ होता है) और नमाज़ पढ़ाने में औलिया की वही तरतीब है जो निकाह में है सिर्फ़ फर्क़ इतना है कि नमाज़े जनाज़ा में मय्यित के बाप को बेटे पर तक़द्दुम है और निकाह में बेटे को बाप पर अलबत्ता बाप आलिम नहीं और बेटा आलिम है तो नमाज़े जनाज़ा में बेटा मुक़द्दम है, अगर असाबा ना हो तो ज़वील इरहाम गैरो पर मुक़द्दम हैं।

मय्यित का वली -ए- अक़राब (सबसे ज़्यादा नज़दीक का रिश्तेदार गायिब है और दूर का रिश्तेदार (वली) हाज़िर है तो यही दूर वाला नमाज़ पढ़ाये, गायिब होने से मुराद ये है कि इतनी दूर है कि उसके आने के इंतज़ार में हर्ज हो।

औरत का कोई वली ना हो तो शौहर नमाज़ पढ़ाये, वो भी ना हो तो पड़ोसी यूँ ही मर्द का वली ना हो तो पड़ोसी औरों पर मुक़द्दम है। औरतो और बच्चो को नमाज़े जनाज़ा की विलायत नहीं। वली और बादशाहे इस्लाम को इख्तेयार है कि किसी और को नमाज़े जनाज़ा पढ़ाने की इजाज़त दे दे।

मय्यित ने वसिय्यत की थी कि मेरी नमाज़ फुलां पढ़ाये या मुझे फुलां शख्स गुस्ल दे तो ये वसिय्यत बातिल है यानी इस वसिय्यत से वली का हक़ जाता ना रहेगा, हाँ वली को इख्तेयार है कि खुद ना पढ़ाये, उसे पढ़वा दे।

औरत मर गयी, शौहर और जवान बेटा छोड़ा तो विलायत बेटे को है शौहर को नहीं, अलबत्ता ये लड़का अगर उसी शौहर से है तो बाप पर पेश क़दमी मकरूह है, उसे चाहिये कि बाप से पढ़वाये और अगर दूसरे शौहर से है तो सौतेले बाप पर तक़द्दुम कर सकता है कोई हर्ज नहीं और बेटा बालिग़ ना हो तो औरत के जो और वली हों उनका हक़ है शौहर का नहीं।

दो या चंद शख्स एक दर्जे के वली हों तो ज़्यादा हक़ उस का है जो उम्र में बड़ा है मगर किसी को ये इख़्तियार नहीं कि दूसरे वली के सिवा किसी और से बग़ैर उसकी इजाज़त के पढ़वा दे और अगर ऐसा किया यानी खुद ना पढ़ाई और और किसी को इजाज़त दे दी तो दूसरे वली को मना का इख़्तियार है, अगर्चे ये दूसरा वली उम्र में छोटा हो और अगर एक वली ने एक शख्स को इजाज़त दी, दूसरे ने दूसरे को तो जिसको बड़े ने इजाज़त दी वो औला है।

मय्यित ने वसिय्यत की थी कि मेरी नमाज़ फुलां पढ़ाये या मुझे फुलां शख्स ग़ुस्ल दे तो ये वसिय्यत बातिल है यानी इस वसिय्यत से वली का हक़ नहीं जायेगा, हाँ वली को इख़्तियार है कि खुद ना पढ़ाये उस से पढ़वा दे।

वली के सिवा किसी ऐसे ने नमाज़ पढ़ायी जो वली से मुक़द्दम ना हो और वली ने उसे इजाज़त भी ना दी थी तो अगर वली नमाज़ में शरीक ना हुआ तो नमाज़ को दोहराया जा सकता है और अगर मुर्दा दफ्न हो गया है तो क़ब्र पे नमाज़ पढ़ सकता है और अगर वो वली पर मुक़द्दम है जैसे बादशाह व क़ाज़ी व इमामे मुहल्ला कि वली से अफ़ज़ल हो तो अब नमाज़ का इआदा नहीं कर सकता और अगर एक वली ने नमाज़ पढ़ा दी तो दूसरे औलिया इआदा नहीं कर सकते और हर सूरते इआदा में जो शख्स पहली नमाज़ में शामिल ना था वो वली के साथ पढ़ सकता है और जो शख्स शरीक था वो वली के साथ नहीं पढ़ सकता है कि जनाज़ा की दो मर्तबा नमाज़ नाजाइज़ है सिवा इस सूरत के कि ग़ैर वली ने बग़ैर वली की इजाज़त के पढ़ा दी।

जिन चीज़ों से तमाम नमाज़ें फ़ासिद होती हैं नमाज़े जनाज़ा भी उनसे फ़ासिद हो जाती है सिवाये एक बात के, कि औरत मर्द के महाज़ी हो जाये तो नमाज़ फ़ासिद ना होगी।

मुस्तहब ये है कि मय्यित के सीने के सामने इमाम खड़ा हो और मय्यित से दूर ना हो, मय्यित ख्वाह मर्द हो या औरत, बालिग़ हो या नाबालिग़ और ये उस वक़्त है कि एक ही मय्यित की नमाज़ पढ़ाई हो और अगर चंद हों तो एक के सीने से मुक़ाबिल और क़रीब खड़ा हो।

इमाम ने पाँच तकबीरें कही तो पाँचवी तकबीर में मुक़तदी इमाम की इत्तिबा ना करे बल्कि चुप खड़ा रहे जब इमाम सलाम फेरे तो उसके साथ सलाम फेर दे।

बाज़ तकबीरें छूट गयी यानी उस वक़्त आया कि बाज़ तकबीरें हो चुकी हैं तो फौरन शामिल ना हो बल्कि उस वक़्त हो जब इमाम तकबीर कहे और अगर फौरन शामिल हो गया, इमाम के तकबीर कहने का इंतिज़ार ना किया तो इमाम के तकबीर से पहले जो कुछ अदा किया उसका ऐतबार नहीं।

अगर वही मौजूद था मगर तकबीरे तहरीमा के वक़्त इमाम के साथ अल्लाहु अकबर ना कहा ख़्वाह ग़फ़लत की वजह से देर हुई या अब तक निय्यत ही करता रह गया तो ये शख्स इस का इंतिज़ार ना करे कि इमाम दूसरी तकबीर कहे तो उसके साथ शामिल हो बल्कि फौरन ही शामिल हो जाये।

मस्बूक़ यानी जिस की बाज़ तक्बीरें फौत हो गयी वो अपनी बाक़ी तक्बीरें इमाम के सलाम फेरने के बाद कहे और अगर ये अंदेशा हो कि दुआएँ पढ़ेगा तो पूरी करने से पहले लोग मय्यित को काँधे तक उठा लेंगे तो सिर्फ़ तक्बीरें कह ले, दुआएँ छोड़ दे।

लाहिक़ यानी जो शुरु में जमा'अत में शामिल हुआ मगर किसी वजह से बीच में की बाज़ तक्बीरें रह गयी मस्लन पहली तक्बीर इमाम के साथ कही मगर दूसरी और तीसरी छूट गयी तो इमाम की चौथी तक्बीर से पेश्तर ये तक्बीरें कह ले।

चौथी तक्बीर के बाद जो शख्स आया तो जब तक इमाम ने सलाम ना फेरा शामिल हो जाये और इमाम के सलाम के बाद तीन बार अल्लाहु अकबर कह ले।

कई जनाज़े जमा हो तो एक साथ सब की नमाज़ पढ़ सकता है यानी एक ही नमाज़ में सब की निय्यत कर ले और अफ्ज़ल ये है कि सब अलाहिदा अलाहिदा पढ़े और इस सूरत में यानी जब अलाहिदा अलाहिदा पढ़े तो उन में जो अफ्ज़ल है उसकी पहले पढ़े फिर उसके बाद जो उसके बाद सब से अफ्ज़ल हो फिर इसी तरह आगे।

अगर चंद जनाज़ो को एक के बाद एक सब इमाम के सामने रखें तो भी जो अफ्ज़ल हो उसको पहले रखा जाये और इख्तियार है कि एक के पाऊँ के बाद एक को फिर दूसरे को रखें यानी सब इमाम के सामने ना हो बल्कि एक हो और बाक़ी उसके सिरहाने और पाऊँ की तरफ़ बराबर बराबर।

एक जनाज़े की नमाज़ शुरू की थी कि दूसरा आ गया तो पहले की पूरी कर ले और अगर दूसरी तकबीर में दोनों की निय्यत कर ली, जब भी पहले की ही होगी और अगर सिर्फ दूसरे की निय्यत की तो दूसरे की होगी, उस से फ़ारिग़ हो कर पहली की फिर पढ़े।

नमाज़े जनाज़ा में इमाम बे वुज़ू हो गया और किसी को अपना ख़लीफ़ा किया तो जाइज़ है। मैयित को बिना नमाज़ पढ़े दफ्न कर दिया और मिट्टी भी दे दी गयी तो अब उसकी क़ब्र पर नमाज़ पढ़ें जब तक जिस्म फटने के गुमान ना हो और मिट्टी ना दी गयी तो निकालें और नमाज़ पढ़ कर दफ्न करें और क़ब्र पर नमाज़ पढ़ने में दिनों की कोई तादाद मुक़र्रर नहीं है कि कितने दिनों तक पढ़ी जाये कि ये मय्यित के जिस्म, मौसम और ज़मीन के हिसाब से मुख्तलफ़ है।

कुएँ में गिरकर मर गया या उसके ऊपर मकान गिर पड़ा और मुर्दे को निकाला ना जा सका तो उसी जगह उसकी नमाज़ पढ़ें और दरिया में डूब गया और निकाला ना जा सका तो उसकी नमाज़ नहीं हो सकती कि मय्यित का मुसल्ला के आगे होना मालूम नहीं।

मस्जिद में नमाज़े जनाज़ा मुत्लक़न मकरूहे तहरीमी है ख्वाह मय्यित मस्जिद के अंदर हो या बाहर, सब नमाज़ी मस्जिद में हों या बाज़। हदीस में नमाज़े जनाज़ा मस्जिद में पढ़ने की मुमानियत आयी है। दूसरे की ज़मीन पर नमाज़े जनाज़ा पढ़ना मना है कि ज़मीन का मालिक मना करता हो।

जुम्आ के दिन किसी का इन्तिक़ाल हुआ तो अगर जुम्आ से पहले तजहीज़ो तकफीन हो सके तो पहले ही कर लें, इस ख्याल से रोक रखना कि जुम्आ के बाद मजमा ज़्यादा होगा मकरूह है। नमाज़े मग़रिब के वक़्त जनाज़ा आया तो फ़र्ज़ और सुन्नतें पढ़ कर नमाज़े जनाज़ा पढ़ें। यूँ ही किसी और फ़र्ज़ नमाज़ के वक़्त जनाज़ा आया और जमाअत तैय्यार हो तो फ़र्ज़ व सुन्नत पढ़ कर नमाज़े जनाज़ा पढ़ें, बशर्ते कि नमाज़े जनाज़ा की ताखीर में जिस्म खराब होने का अंदेशा ना हो।

मुसलमान मर्द व औरत का बच्चा ज़िन्दा पैदा हुआ यानी अक्सर हिस्सा बाहर होने के वक़्त वो बच्चा ज़िन्दा था फिर मर गया तो उसको ग़ुस्ल व कफ़न देंगे और उसकी नमाज़ पढ़ेंगे वरना उसे वैसे ही नहला कर एक कपड़े में लपेट कर दफ़न कर देंगे।

उसके लिये ग़ुस्ल व कफ़न बातरीके मस्नून नहीं और नमाज़ भी उसकी नहीं होगी यहाँ तक कि जब उसका सर बाहर हुआ था उस वक़्त चीख़ता था मगर अक्सर हिस्सा निकलने से पेश्तर मर गया तो नमाज़ ना पढ़ी जाये। अक्सर की मिक़दार ये है कि सर की जानिब से हो तो सीना तक अक्सर है और पाऊँ की जानिब से हो तो कमर तक।

बच्चे की माँ या जनाई ने ज़िन्दा पैदा होने की शहादत दी तो उसकी नमाज़ पढ़ी जाये मगर विरासत के बारे में उनकी गवाही ना मुअतबर है यानी बच्चा अपने बाप फौत शुदा का वारिस नहीं क़रार दिया जायेगा ना बच्चे की वारिश उसकी माँ होगी। ये उस वक़्त है कि खुद बाहर निकला और किसी ने हामिला के शिकम पर ज़र्ब लगाई कि बच्चा मरा हुआ बाहर निकला तो वारिस होगा और वारिस बनायेगा।

बच्चा ज़िन्दा पैदा हुआ या मुर्दा उसकी ख़िलक़त तमाम हो या ना हो बहर हाल उसका नाम रखा जाये और कियामत के दिन उसका हश्र होगा।