मुसाफ़िर की नमाज़ का बयान | Musafir Ki Namaz Ka Tarika


By ilmnoohai.com   ·  
Updated:   ·   5 min read.

मुसाफ़िर की नमाज़ का बयान | Musafir Ki Namaz Ka Tarika

मुसाफ़िर कब होगा?

शरीअत में मुसाफ़िर वो शख्स है जो तीन दिन की राह तक जाने के इरादे से बस्ती से बाहर हुआ और किलोमीटर के हिसाब से ये तक़रीबन 92 किलोमीटर की दूरी होगी।

किसी जगह जाने के लिये दो रास्ते हैं, एक से जायेगा तो लंबा रास्ता है और दूसरे से कम तो जिस से जायेगा उस का ऐतबार होगा यानी कहीं जाना है और एक रास्ता 95 किलोमीटर का है और दूसरा 70 का तो 95 वाले से जाने पर मुसाफ़िर कहलायेगा वरना नहीं।

तीन दिन की राह को तेज़ी से दो दिन में तय कर लिया जाये तो भी मुसाफ़िर ही होगा, ऐसा नहीं है कि 92 किलोमीटर का सफर 1 घंटे में तय करे तो मुसाफ़िर नहीं और अगर 92 से कम यानी 80-90 किलोमीटर का सफ़र तीन दोनों में किया तो मुसाफ़िर नहीं।

सिर्फ़ निय्यत करने से मुसाफ़िर नहीं होगा बल्कि ज़रूरी है कि बस्ती से बाहर हो जाये, शहर है तो शहर से, गाँव है तो गाँव से और शहर वाले के लिये ज़रूरी है कि शहर से आस पास जो आबादी जुड़ी हुयी है, उस से भी बाहर हो जाये। -(देखिये बहारे शरीअत)

मुसाफ़िर की नमाज़ के मस्अले | Musafir Ki Namaz Ke Masail

शहर से कोई गाँव मुत्तसिल है तो उससे बाहर आ जाना शहर वाले के लिये ज़रूरी नहीं। शहर से बाहर जो जगह शहर के कामों के लिये हो मस्लन क़ब्रिसतान, घुड़ दौड़ का मैदान, कूड़ा फेंकने की जगह, अगर ये शहर से मुत्तसिल हों तो इससे बाहर हो जाना ज़रूरी है और अगर फासिला हो तो ज़रूरी नहीं।

कोई मुहल्ला पहले शहर से मिला हुआ था अब जुदा हो गया तो इससे बाहर होना भी ज़रूरी है और जो पहले मुत्तसिल था और अब वीरान हो गया तो उससे बाहर आना शर्त नहीं। स्टेशन जहाँ आबादी से बाहर हो तो स्टेशन पर पहुँचने से मुसाफिर हो जायेगा जबकि मुसाफत सफ़र तक जाने का इरादा हो यानी 92 किलोमीटर।

मुसाफिर होने के लिये ज़रूरी है कि जहाँ से चला हो वहाँ से तीन दिन के सफ़र के इरादे से निकला हो वरना अगर ऐसा किया कि दो दिन के सफ़र की निय्यत की, फिर वहाँ पहुँच कर वहाँ से एक दिन के सफ़र की तो मुसाफिर ना होगा चाहे इस तरह पूरी दुनिया घूम आये।

मुसाफिर की नमाज़ मे कित्नी रकात पडे? | Musafir Ki Namaz Ki Rakat

मुसाफ़िर पर वाजिब है कि नमाज़ में क़स्र करे यानी 4 रकअत वाले फ़र्ज़ को दो पढ़े, इस के हक़ में दो ही रकअतें पूरी नमाज़ हैं और जान बूझ कर चार पढ़ी और दो पर क़ा'दा किया तो फ़र्ज़ अदा हो गये और पिछली रकअतें नफ़्ल हुयी मगर गुनाहगार व मुस्तहिके नार हुआ कि वाजिब तर्क किया लिहाज़ा तौबा करे और अगर दो रकअत पर क़ा'दा ना किया तो फ़र्ज़ अदा ना हुये और वो नमाज़ नफ़्ल हो गयी हाँ अगर तीसरी रकअत का सजदा करने से पहले इक़ामत की निय्यत कर ली तो फ़र्ज़ बातिल ना होंगे मगर कियाम व रुकूअ का इआदा करना होगा और अगर तीसर के सजदे में निय्यत की तक अब फ़र्ज़ जाते रहे, यूँ ही अगर पहली दोनों या एक में किरअत ना की नमाज़ फ़ासिद हो गयी।

ये रुख़्सत मुसाफ़िर के लिये मुत्लक़ है यानी अब उस का सफ़र जाइज़ काम के लिये हो या नाजाइज़ काम के लिये, उस पर मुसाफ़िर के अहकाम जारी होंगे। सुन्नतों में क़स्र नहीं है बल्कि पूरी पढ़ी जायेंगी अलबत्ता खौफ़ और घबराहट की हालत में माफ़ हैं और अमन की हालत में पढ़ी जायें। -(देखिये बहारे शरीअत)

मुसाफिर की नमाज़ के मस्अले | Musafir Ki Namaz Ke Masail

मुसाफ़िर उस वक़्त तक मुसाफ़िर है जब तक अपनी बस्ती में पहुँच ना जाये या आबादी में पूरे पंद्रह दिन ठहरने की निय्यत ना कर ले, ये उस वक़्त है जब तीन दिन की राह चल चुका हो और अगर तीन मंज़िल पहुँचने के पेश्तर वापसी का इरादा कर लिया तो मुसाफ़िर ना रहा अगर्चे जंगल में हो।

इक़ामत की निय्यत सहीह होने के लिये 6 शर्तें हैं :

  • चलना तर्क करे, अगर चलने की हालत में इक़ामत की निय्यत की तो मुक़ीम नहीं (मुसाफ़िर है)
  • वो जगह इक़ामत की सलाहिय्यत रखती हो, जंगल या दरिया या ग़ैर आबाद टापू में मुक़ीम होने की निय्यत की तो ना हुयी (मुसाफ़िर ही है)
  • 15 दिन ठहरने की निय्यत की हो, इस से कम की निय्यत की तो मुक़ीम नहीं मुसाफ़िर है।
  • ये निय्यत एक ही जगह ठहरने की हो, अगर दो जगहों में 15 दिन ठहरने का इरादा हो, मस्लन एक में दस दिन दूसरे में 5 दिन का तो मुक़ीम ना होगा।
  • अपना इरादा मुस्तकिल (अलग) रखता हो, किसी का ताबे (Under) ना हो।
  • उसकी हालत उसके इरादे के मनफ़ी ना हो।
  • Musafir Ke Masail | मुसाफ़िर के मस्अले

    मुसाफ़िर रास्ते में है और शहर या गाँव में पहुँचा नहीं और इक़ामत की निय्यत कर ली तो मुक़ीम नहीं होगा, जब पहुँच जाये और निय्यत करे तो होगा अगर्चे घर या किसी जगह की तलाश में घूम रहा हो।

    दो जगह 15 दिन ठहरने की निय्यत की और दोनों मुस्तकिल हो जैसे मक्का व मिना तो मुक़ीम ना हुआ और एक दूसरे की ताबे हो जैसे शहर और उस की फिना (बाहरी हिस्सा) तो मुक़ीम हो गया।

    ये निय्यत की कि दो बस्तियों में 15 दिन रुकेगा, एक जगह दिन में रहेगा और दूसरी जगह रात में तो अगर पहले वहाँ गया जहाँ दिन में रुकने का इरादा है मुक़ीम ना हुआ और अगर पहले वहाँ गया जहाँ रात में रहने के क़स्द है तो मुक़ीम हो गया, फिर यहाँ से दूसरी बस्ती में गया तो भी मुक़ीम हो गया।

    मुसाफ़िर अगर अपने इरादे में मुस्तकिल ना हो यानी किसी के ताबे में हो तो 15 दिन की निय्यत से मुक़ीम नहीं होगा मिसाल के तौर पर ऐसी औरत जिस का मेहर मुअज्जल शौहर के ज़िम्मे बाक़ी नहीं है तो वो शौहर की ताबे है, उसकी अपनी निय्यत बेकार है और ऐसा शागिर्द जिस को उस्ताद के यहाँ से खाना मिलता है तो ये अपने उस्ताद के ताबे है और नेक बेटा अपने बाप के ताबे है, इन सब की अपनी निय्यत बेकार है बल्कि जिनके ताबे हैं उनकी निय्यतों का ऐतबार है, अगर उनकी निय्यत इक़ामत की है तो ये भी मुक़ीम हैं और उनकी निय्यत इक़ामत की नहीं तो ये ताबे भी मुसाफ़िर हैं।

    औरत का महरे मुअज्जल बाक़ी हो तो उसे इख्तियार है कि अपने नफ़्स को रोक ले लिहाज़ा उस वक़्त ताबे नहीं। ताबे को चाहिये कि जिस का ताबे है उस से सवाल कर के अमल करे यानी वो मुक़ीम है या मुसाफ़िर और उसी के हिसाब से खुद को भी मुक़ीम या मुसाफ़िर समझे। अगर अंधे के साथ कोई उसे पकड़ कर ले जाने वाला है तो अगर ये उस का नौकर है तो नाबीना की अपनी निय्यत का ऐतबार है और अगर अगर महज़ एहसान के तौर पर साथ है तो इस कि निय्यत का ऐतबार है।

    किसी ने 15 दिन की इक़ामत की निय्यत की पर उसकी हालत बताती है कि 15 दिन नहीं रुकेगा तो निय्यत सहीह नहीं। जो शख्स कहीं गया और वहाँ 15 दिन रुकने का इरादा नहीं पर जिस क़ाफ़िले के साथ है और ये मालूम है कि क़ाफ़िला 15 दिन के बाद जायेगा तो वो मुक़ीम है अगर्चे इक़ामत की निय्यत ना हो।

    मुसाफ़िर अगर किसी काम के लिये या साथियों के इंतिज़ार में दो चार रोज़ या तेरह चौदह दिन की निय्यत से ठहरा या ये इरादा है कि काम हो जायेगा तो चला जायेगा पर दोनों सूरतों में अगर आज कल आज कल करते बरसों गुज़र जायें जब भी मुसाफ़िर ही है, नमाज़ क़स्र पढ़े।

    मुसाफ़िर ने नमाज़ के अंदर इक़ामत की निय्यत की तो ये नमाज़ भी पूरी पढ़े और अगर ये सूरत हुयी थी कि एक रकअत पढ़ी और वक़्त खत्म हो गया और दूसरी में इक़ामत की निय्यत की तो ये नमाज़ दो ही रकअत पढ़े, इस के बाद की चार पढ़े। -(देखिये बहारे शरीअत)

    अदा व क़ज़ा दोनों में मुक़ीम मुसाफ़िर की इक़्तिदा कर सकता है और इमाम के सलाम फेरने के बाद अपनी बाक़ी 2 रकअतें पढ़ ले और इन दो में किरअत बिल्कुल ना करे बल्कि बा-क़द्रे फ़ातिहा चुप खड़ा रहे। इमाम अगर मुसाफ़िर हो तो उसे चाहिये कि शुरू करते वक़्त अपना मुसाफ़िर होना ज़ाहिर कर दे और शुरू में ना कहा तो नमाज़ के बाद कह दे कि अपनी नमाज़ें पूरी कर लो मै मुसाफ़िर हूँ और शुरू में कह दिया है जब भी बाद में कह दे कि लोग उस वक़्त मौजूद ना थे उन्हें भी मालूम हो जाये।

    वक़्त खत्म होने के बाद मुसाफ़िर मुक़ीम की इक़्तिदा नहीं कर सकता, वक़्त में कर सकता है और इस सूरत में मुसाफ़िर के फ़र्ज़ भी चार हो गये ये हुक्म 4 रकअत वाली नमाज़ का है और वो नमाज़ें जिन में क़स्र नहीं कर सकता उन में वक़्त और बादे वक़्त दोनों सूरतों में इक़्तिदा कर सकता है। -(देखिये बहारे शरीअत)

    मुसाफ़िर ने मुक़ीम के पीछे शुरू कर के नमाज़ फ़ासिद कर दी तो अब दो ही पढ़ेगा यानी जबकि तन्हा पढ़े या किसी मुसाफ़िर की इक़्तिदा करे और अगर फिर मुक़ीम की इक़्तिदा की तो चार पढ़े।

    मुसाफ़िर ने मुक़ीम की इक़्तिदा की तो मुक़्तदी पर भी क़ा'दा -ए- ऊला वाजिब हो गया, फ़र्ज़ ना रहा (तन्हा पढ़ता तो ये फ़र्ज़ होता क्योंकि ये क़ा'दा -ए- आखिरा होता) तो अगर इमाम ने क़ा'दा ना किया तो नमाज़ फ़ासिद ना हुयी और मुक़ीम ने मुसाफ़िर की इक़्तिदा की तो मुक़्तदी पर भी क़ा'दा -ए- ऊला फ़र्ज़ हो गया (तन्हा पढ़ता वो वाजिब होता)

    वतन की दो किस्में:(1) वतने अस्ली | (2) वतने इक़ामत

    वतने अस्ली वो जगह है जहाँ उस की पैदाइश है या उस के घर के लोग वहाँ रहते हैं या वहाँ सुकूनत कर ली और ये इरादा है कि यहाँ से ना जायेगा।

    वतने इक़ामत : वो जगह है कि जहाँ मुसाफ़िर ने 15 दिन या उस से ज़्यादा ठहरने का इरादा किया हो।

    मुसाफ़िर ने कहीं शादी कर ली तो अगर्चे वहाँ 15 दिन रुकने का इरादा ना हो, मुक़ीम हो गया और दो शहरों में उसकी दो औरतें रहती हों तो दोनों जगह पहुँचते ही मुक़ीम हो जायेगा।

    एक जगज किसी का वतने अस्ली है अब उस ने दूसरी जगह वतने अस्ली बनाया, अगर पहली जगह बाल बच्चे मौजूद हों तो दोनों अस्ली हैं वरना पहला अस्ली ना रहा ख़्वाह उन दोनों जगहों के दरमियान सफ़र का (शरई) फ़ासिला हो या ना हो।

    वतने इक़ामत दूसरे वतने अस्ली इक़ामत को बतिल कर देता है यानी एक जगज 15 दिन के इरादे से ठहरा फिर दूसरी जगह इतने ही दिन के इरादे से ठहरा तो पहली जगह अब वतन ना रही दोनों के दरमियान मुसाफ़ते सफ़र हो या ना हो यूँ ही वतने इक़ामत वतने अस्ली और सफ़र से बातिल हो जाता है।

    अगर अपने घर के लोगों को लेकर दूसरी जगह चला गया और पहली जगह मकान व अस्बाब वग़ैरह बाक़ी हैं तो वो भी वतने अस्ली है। वतने इक़ामत के लिये ये ज़रूरी नहीं कि तीन दिन के सफर के बाद वहाँ इक़ामत की हो बल्कि अगर मुद्दते सफर तय करने से पेश्तर इक़ामत कर ली तो वो वतने इक़ामत हो गया।

    बालिग़ के वालिदैन किसी शहर में रहते हैं और वो शहर इस की जा -ए- विलादत नहीं, ना इस के अहल वहाँ तो वो जगह इसके लिये वतन नहीं। मुसाफ़िर जब वतने अस्ली पहुँच गया सफ़र खत्म हो गया अगर्चे इक़ामत की निय्यत ना की हो।

    औरत शादी कर के ससुराल गयी और यहीं रहने सहने लगे तो माइका उस के लिये वतने अस्ली ना रहा यानी अगर ससुराल तीन मंज़िल (92 Km) पर है वहाँ से माइके आयी और 15 दिन से कम रुकना है तो क़स्र पढ़े और अगर माइके में रहना नहीं छोड़ा बल्कि सुसराल आरज़ी (Temporarily) तौर पर गयी तो माइके आते ही सफ़र ख़त्म हो गया नमाज़ पूरी पढ़े।

    औरत को बग़ैर महरम के तीन दिन या ज़्यादा की राह जाना नाजाइज़ है। हमराही में बालिग़ मेहरम या शौहर का होना ज़रूरी है। मेहरम के लिये जरूरी है कि सख्त फ़ासिक़, बे बाक ग़ैर मामून ना हो।