अल्लाह त'आला फरमाता है:
ऐ ईमान वालों! जब नमाज़ के लिये जुम्आ के दिन आवाज़ दी जाये तो ज़िक्रे खुदा की तरफ़ दौड़ो और खरीदो फ़रोख़्त छोड़ दो, ये तुम्हारे लिये बेहतर है अगर तुम जानते हो। (अल जुम्आ) | जुम्आ फ़र्ज़े ऐन है यानी किसी और के अदा करने से कोई और ज़िम्में से बरी नहीं होता और इस की फर्ज़िय्यत ज़ुहर से ज़्यादा मुअक्कद है (यानी ताकीद इस में ज़्यादा है) और इस का इंकार करने वाला काफ़िर है।
(1) मिस्र या फ़ना -ए- मिस्र होना। (देहात में जुम्आ नहीं)
(2) सुल्ताने इस्लाम या उसके नाइब जिसे जुम्आ क़ाइम करने का हुक्म दिया।
(3) ज़ुहर का वक़्त।
(4) खुत्बा। ख़ुत्बे के शराइत में से है कि वक़्त में हो और नमाज़ से पहले हो और जमाअत में कम से कम खतीब के सिवा तीन मर्द हों। खुत्बा इतनी आवाज़ से हो कि पास वाले सुन सकें। खुत्बा ज़िक्रे इलाही का नाम है अगर्चे सिर्फ एक बार الحمد للہ، سبحان اللہ या لا الہ الا اللہ कहा, इसी से फ़र्ज़ अदा हो गया मगर इतने पर ही इक्तिफा करना मकरूह है। खुत्बा और नमाज़ में अगर ज़्यादा फ़ासिला हो जाये तो वो खुत्बा नमाज़ के लिये काफ़ी नहीं।
सुन्नत ये है कि दो ख़ुत्बे पढ़े जायें और बड़े बड़े ना हों और अगर दोनों मिल कर तवाले मुफ़स्सल से बढ़ जायें तो मकरूह है ख़ुसूसन जाड़े के मौसम में।
इन में से एक भी मदूम हो तो फ़र्ज़ नहीं फिर भी अगर पढ़ेगा तो हो जायेगा बल्कि मर्द आकिल बालिग़ के लिये पढ़ना अफ़ज़ल है और औरत के लिये ज़ुहर अफ़ज़ल।
जुम्आ की इमामत हर वो मर्द कर सकता है जो और नमाज़ों की इमामत कर सकता है अगर्चे उस पर जुम्आ फ़र्ज़ ना हो जैसे मरीज़, मुसाफ़िर और ग़ुलाम।
जिस पर जुम्आ फ़र्ज़ है उसे शहर में जुम्आ होने से पहले ज़ुहर पढ़ना मकरूहे तहरीमी है बल्कि इमाम इब्ने हुम्माम ने फ़रमाया कि हराम है और पढ़ लिया जब भी जुम्आ के लिये जाना फ़र्ज़ है और जुम्आ हो जाने के बाद ज़ुहर पढ़ने में कराहत नहीं बल्कि अब तो ज़ुहर ही पढ़ना फ़र्ज़ है।
अगर जुम्आ दूसरी जगह ना मिल सके मगर जुम्आ तर्क करने का गुनाह इस के सर रहा। ये शख्स जो कि जुम्आ होने से पहले ज़ुहर पढ़ चुका था फिर नादिम हो कर घर से जुम्आ की निय्यत से निकला अगर उस वक़्त इमाम नमाज़ में हो तो नमाज़े ज़ुहर जाती रही, जुम्आ मिल जाये तो पढ़ ले वरना ज़ुहर की नमाज़ फिर पढ़े अगर्चे मस्जिद दूर होने के सबब से जुम्आ ना मिला हो।
जिन सूरतों में कहा गया है कि जुम्आ बातिल हो जायेगा तो मतलब ये कि फ़र्ज़ जाता रहा वो नमाज़ नफ़्ल हो गयी। मरीज़ या मुसाफ़िर या कैदी या कोई और जिस पर जुम्आ फ़र्ज़ नहीं, उन लोगों को भी जुम्आ के दिन शहर में जमाअत के साथ ज़ुहर पढ़ना मकरूहे तहरीमी है ख्वाह जुम्आ से पहले जमाअत करें या बाद में।
उलमा फ़रमाते हैं कि जिन मस्जिदों में जुम्आ नहीं होता, उन्हें जुम्आ के दिन ज़ुहर के वक़्त बंद रखें।
गाँव में जुम्आ के दिन भी ज़ुहर की नमाज़ अज़ान व इक़ामत के साथ बा-जमाअत पढ़ें। माज़ूर अगर जुम्आ के दिन ज़ुहर पढ़े तो मुस्तहब ये है कि जुम्आ हो जाने के बाद पढ़े और ताखीर ना की तो मकरूह है।
जिस ने जुम्आ का क़ादा पा लिया या सजदा -ए- सह्व के बाद शरीक हुआ उसे जुम्आ मिल गया लिहाज़ा अपनी दो ही रकअतें पूरी करे।
नमाज़े जुम्आ के लिये पहले से जाना और मिस्वाक करना और अच्छे और सफ़ेद कपड़े पहनना और तेल खुश्बू लगाना और पहली सफ़ में बैठना मुस्तहब है और ग़ुस्ल सुन्नत।
जब इमाम ख़ुत्बे के लिये खड़ा हो उस वक़्त से खत्मे नमाज़ तक नमाज़ व अज़्कार और हर किस्म का कलाम मना है अलबत्ता साहिबे तरतीब अपनी क़ज़ा नमाज़ पढ़ ले यूँ ही जो शख्स सुन्नत या नफ़्ल पढ़ रहा है तो जल्द पूरी कर ले।
जो चीज़ें नमाज़ में हराम हैं मस्लन खाना पीना सलाम व जवाब तो ये सब ख़ुत्बे की हालत में भी हराम हैं यहाँ तक कि अम्र बिल मारूफ़ (अच्छी बात का हुक्म देना)
ख़ुत्बे के दरमियान ख़तीब नेक बात का हुक्म दे सकता है। ख़तीब जब खुत्बा पढ़े तो तमाम सामईन पर ख़ामोश रहना और सुनना फ़र्ज़ है, जो लोग इमाम से दूर हों कि ख़ुत्बे की आवाज़ उन तक ना पहुँचती हो तो उन पर भी चुप रहना वाजिब है। अगर किसी को कोई बुरी बात करते देखे तो हाथ या सर के इशारे से मना कर सकते हैं, ज़ुबान से जाइज़ नहीं।
अगर कोई बिच्छू वग़ैरह ही कि काट देगा किसी को तो ज़ुबान से कह सकते हैं और अगर इशारे से काम हो जाये तो कहने की इजाज़त नहीं। अगर ख़तीब ने मुसलमानों के लिये दुआ की तो सामईन को हाथ उठाना और आमीन कहना जाइज़ नहीं, करेंगे तो गुनाहगार होंगे। हुज़ूर ﷺ का नाम अगर ख़तीब ने लिया तो दुरूद दिल में पढ़ें ज़ुबान से पढ़ने की उस वक़्त इजाज़त नहीं।
खुत्बा -ए- जुम्आ के इलावा और खुत्बों का सुनना भी वाजिब है मस्लन ख़ुत्बा -ए- ईदैन और ख़ुत्बा -ए- निकाह वग़ैरहुमा। पहली अज़ान होते ही ख़रीदो फ़रोख़्त तर्क कर दिया जाये यहाँ तक कि अगर रास्ते में चलते हुये ख़रीदो फ़रोख़्त की तो ये भी नाजाइज़ और मस्जिद में ख़रीदो फ़रोख़्त तो सख्त गुनाह है।
खाना खा रहा था और अज़ाने जुम्आ की आवाज़ आयी अगर ये अंदेशा हो कि खायेगा तो जुम्आ फौत हो जायेगा तो खाना छोड़ दे और जुम्आ को जाये, जुम्आ के लिये इत्मिनानो वक़ार से जाये। ख़तीब जब मिम्बर पर बैठे तो उसके सामने दोबारा अज़ान दी जाये।
अक्सर जगह देखा गया है कि दूसरी अज़ान पस्त आवाज़ से कहते हैं, ये ना चाहिये बल्कि इसे भी बुलंद आवाज़ से कहें कि इस से भी ऐलान मक़सूद है और जिसने पहली ना सुनी उसे सुन का हाज़िर हो।
खुत्बा खत्म हो जाये तो फ़ौरन इक़ामत कही जाये। ख़ुत्बा व इक़ामत के दरमियान दुनिया की बात करना मकरूह है। जिसने खुत्बा पढ़ा वही नमाज़ पढ़ाये, दूसरा ना पढ़ाये और अगर दूसरे ने पढ़ा दी तो भी हो जायेगी जबकि उसे इजाज़त दी गयी हो।
नमाज़े जुम्आ में बेहतर ये है कि पहली रकअत में सूरहे जुम्आ और दूसरी में सूरहे मुनाफ़िक़ून या पहली में:سبح اسم और दूसरी में:ھل اتک पढ़े।
जुम्आ के दिन सफर किया और ज़वाल से पहले आबादी से बाहर हो गया तो हर्ज नहीं वरना मम्नूअ है। हजामत बनवाना और नाखून तरशवाना जुम्आ के बाद अफ़ज़ल है।
सवाल करने वाला अगर नमाज़ियों के आगे से गुज़रता हो या गर्दनें फलाँगता हो तो ये बिला ज़रूरत मांगता हो तो सवाल भी नाजाइज़ है और ऐसे साइल को देना भी नाजाइज़। जुम्आ के दिन या रात में सूरहे कहफ़ की तिलावत अफज़ल है और ज़्यादा बुज़ुर्गी रात में पढ़ने की है।
नसई और बैहक़ी बा सनदे सहीह हज़रते अबू सईद खुदरी से रावी कि फ़रमाते हैं : जो शख़्स सूरहे कहफ़ जुम्आ के दिन पढ़े उस के लिये दोनों जुम्ओं के दरमियान नूर रौशन होगा | दारमी में रिवायत है कि जो शख्स शबे जुम्आ में सूरहे कहफ़ पढ़े तो उस के लिये वहाँ से काबा तक नूर रौशन होगा।
हज़रते इब्ने उमर से रिवायत है कि फ़रमाते हैं : जो जुम्आ के दिन सूरहे कहफ़ पढ़े उसके क़दम से आसमान तक नूर बुलंद होगा जो कियामत को उसके लिये रौशन होगा और दो जुम्ओं के दरमियान जो गुनाह हुये हैं बख्स दिये जायेंगे।
तबरानी में अबू इमामा रदिअल्लाहु त'आला अन्हु से रिवायत है कि हुज़ूर ﷺ ने इरशाद फ़रमाया कि जो शख़्स जुम्आ के दिन या रात में حم الدخان पढ़े, उस के लिये अल्लाह त'आला जन्नत में एक घर बनायेगा।
अबू हुरैरा रदिअल्लाहु त'आला अन्हु से मरवी है कि उसकी मग़फ़िरत हो जायेगी और एक रिवायत में है कि जो किसी रात में पढ़े तो सत्तर हज़ार फ़िरिश्ते उसके लिये अस्तग़फ़र करेंगे। जुम्आ के दिन या रात में सूरहे यासीन पढ़े, उसकी मग़फ़िरत हो जाये।